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वहाबियत एक नासूर

इस्लाम दुश्मनों ख़ास कर ब्रिटेन ने इस्लाम को कमजोर करने और मुसलमानों के बीच फूट डालने के लिए जो विभिन्न षड़यंत्र रचे हैं उनमें से एक बहुत ही कारगर षड़यंत्र “इस्लामी उम्मत में विभिन्न संप्रदाय जन्म देना” है। ब्रिटेन ने मुसलमानों के बीच इस्लाम के नाम पर बहुत से संप्रदाय बनाए जिनमें सबसे महत्वपूर्ण और मशहूर संप्रदाय जो इस समय इस्लामी दुनिया में एक कैंसर के
वहाबियत एक नासूर

इस्लाम दुश्मनों ख़ास कर ब्रिटेन ने इस्लाम को कमजोर करने और मुसलमानों के बीच फूट डालने के लिए जो विभिन्न षड़यंत्र रचे हैं उनमें से एक बहुत ही कारगर षड़यंत्र “इस्लामी उम्मत में विभिन्न संप्रदाय जन्म देना” है। ब्रिटेन ने मुसलमानों के बीच इस्लाम के नाम पर बहुत से संप्रदाय बनाए जिनमें सबसे महत्वपूर्ण और मशहूर संप्रदाय जो इस समय इस्लामी दुनिया में एक कैंसर के फोड़े का रूप धारण कर चुका है “वहाबियत” है। वहाबियत क्या है, इसका इतिहास क्या है और उसके लक्ष्य और उद्देश्य क्या हैं? यह सब यहां बयान नहीं करना, बस वहाबियत के बारे में इतना समझ लेना काफी है यह संप्रदाय और उसके मानने वाले सभी मुसलमानों से हटकर विशेष प्रकार के विश्वासों और विशेष मानसिकता रखने वाले लोग हैं जो दिखाने के लिए तो सारे काम मुसलमानों वाले करते हैं लेकिन उनका वास्तविक इस्लाम से कोई सम्बंध नहीं है।
वहाबी मानसिकता
उनकी एक विशेष प्रकार की मानसिकता है जिसके आधार पर ही उनके सारे दृष्टकोणों का दारोमदार है और वह मानसिकता यह है कि इस्लाम केवल उनके पास है, इस्लाम वही है जो वह समझते हैं, तौहीद (एकेश्वरवाद) वही है जिसे वह तौहीद बताएं और शिर्क वही है जिसे वह शिर्क कह दें, इस मानसिकता के आधार पर ख़ुदा का जो रूप यह पेश करेंगे वही सही है अगर इससे हटकर किसी ने कुछ सोचा या कहा तो वह काफिर है, इस्लाम केवल वही है जिसे वह इस्लाम कहीं इसके अलावा अगर कोई बात इस्लाम के नाम पर पेश की गई तो वह कुफ्र है, और जो भी उनके बताए हुए विश्वासों के खिलाफ एक कदम उठाता है वह मुशरिक है। इसलिए यह न केवल आम मुसलमान बल्कि कभी दबे शब्दों में पैग़म्बर को भी मुश्रिक कह देते हैं और पैगंबर के साथियों और उनके अहलेबैत को भी अपनी गुस्ताख़ियों का निशाना बनाते हैं। यहां इन चीज़ो को विस्तार से बयान करने के लिए समय नहीं है, अगर कोई देखना चाहे तो इब्ने तैमिया से लेकर आज तक उनके जितने उल्मा गुज़रे हैं उनकी किताबों का अध्ययन करके देख सकता है कि कैसे यह लोग क़ुरआन व सुन्नत और उल्मा की शैली के विपरीत सभी मुसलमानों को काफ़िर व मुशरिक बताते हैं और सहाबा और अहलेबैत की शान में गुस्ताखियाँ और उनका अनादर करते हैं।
अहले सुन्नत वहाबियों से अलग
लेकिन यह बात मोमेनीन को और हमारे जवानों को पता होना चाहिए कि अहले सुन्नत का मामला उनसे अलग है। अहले सुन्नत का उनसे कोई सम्बंध नहीं है और न ही उनका अहलेसुन्नत से कोई सम्बंध है। हालांकि वहाबी भी खुद को अहले सुन्नत कहते हैं बल्कि असली सुन्नी मानते हैं खुद को, लेकिन हम अहले सुन्नत और सुन्नी उल्मा के इतिहास से परिचित हैं कि उन्होंने कभी मुसलमानों के कुफ़्र के फतवे नहीं लगाए, कभी पैगम्बर की शान में गुस्ताखी नहीं की, कभी अहलेबैत अ. का अपमान नहीं किया, बल्कि अहले सुन्नत रसूले इस्लाम स.अ. और अहलेबैत के आशिक़ हैं इमाम शाफई की अहलेबैत के प्रति प्यार और श्रद्धा प्रसिद्ध है, विशेष कर उनकी यह चार पंक्तियां बहुत ही मशहूर हैं।
علیٌ حُبّهُ جُنّة        قَسِیمُ النَّارِ وَ الجَنّةِ
وَصِیُّ مَصطفی حَقّا        اِمَام النَّاسِ وَالجِنَّةِ
अली की मोहब्बत ढ़ाल है, जहन्नम की आग से नजात के लिए और वह जन्नत और जहन्नम को बांटने वाले हैं। वह पैगम्बर के सच्चे उत्तराधिकारी हैं और जिन्नात व इंसान के इमाम हैं।
वहाबियों से हमारी मुराद
और हम उन लोगों की बात नहीं करते जो खुद को वहाबी कहते हैं लेकिन उन्हें खुद बी वहाबियत का पता नहीं है, बस वहाबियों की चार बातों से प्रभावित होकर खुद को वहाबी समझ बैठे हैं। इसलिए खुद अहले सुन्नत को सावधान रहना चाहिए और उलमा-एअहले सुन्नत को ध्यान देना चाहिए, इस बात की ओर कि उनके जवान वहाबियों से प्रभावित न हों और उनकी बातों में आकर क़ुरआन और पैग़म्बर की सुन्नत और सहाबा और अहलेबैत अ. से दूर न हों।
जब हम वहाबी समुदाय और उन के अक़ीदे व विश्वास की बात करते हैं तो हमारी मुराद इब्ने तैमिया और मोहम्मद इब्न अब्दुल वह्हाब के अनुयायी होते हैं। हमारी मुराद वह लोग होते हैं जो शिया और सुन्नी दोनों को काफ़िर समझते हैं। शायद कुछ अहलेसुन्नत यह समझते हों कि वहाबियों की दुश्मनी केवल शियों से है और सुन्नियों से उन्हें कोई मतलब नहीं है, ऐसा बिल्कुल नहीं है, आज दुनिया भर में जहां मुसलमानों का नरसंहार किया जा रहा है उसमें अहले सुन्नत भी मारे जा रहे हैं और शिया भी। सीरिया और इराक में बहुत स्थानों पर इसी आईएस के हाथों जो वहाबियत की एक शाखा है शियों से अधिक अहले सुन्नत को मारा जा रहा है। और वहाबी अपने काले कारनामों को छिपाने के लिए मीडिया द्वारा अहले सुन्नत को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि सीरिया और इराक में शिया, सुन्नी को मार रहे हैं।
क़ब्रों और मज़ारों की ज़ियारत और उनका निर्माण
वहाबियों की नज़र में मुसलमानों के अधिकतर काम शिर्क हैं जिनमें से दो काम क़ब्र और कब्रिस्तान से सम्बंधित हैं। एक क़ब्रिस्तान जाना, मुसलमानों और मोमिनों की कब्रों का दर्शन करना, उनकी कब्र पर फातिहा आदि पढ़ना और दूसरा कब्र पर किसी भी तरह का निर्माण करना जैसे कोई गुंबद, कोई मज़ार, कोई मक़बरा आदि बनाना। आज हम 8 शव्वाल के हिसाब से जो जन्नतुल बक़ीअ के विध्वंस का दिन है वहाबियों की इस विचारधारा पर थोड़ा सा प्रकाश डालेंगे और फिर इस बात की ओर इशारा करेंगे कि इन मज़ारों और मकबरों को गिराने का उद्देश्य क्या है।
वहाबियों को क़ब्रों और कब्रिस्तान से बड़ी चिढ़ है। वह मुसलमानों को कब्रिस्तान में जाने, मोमेनीन की कब्र पर फातिहा पढ़ने, वलियों के रौज़ें में जाने और वहां दुआ मांहने से सख्ती से मना करते हैं और उसे शिर्क कहते हैं। जो सज्जन हज या उमरा कर चुके हैं वह इस बात से परिचित होंगे कि वहां कैसे जन्नतुल बक़ीअ जाने से रोका जाता है और कैसे शिर्क शिर्क कहकर वहां से भगाया जाता है। इब्ने तैमिया और उनके अनुयायियों का यह मानना है कि पैग़म्बर अकरम स.अ. या अहलेबैत अ. की क़ब्रों की ज़ियारत करना हराम और शिर्क है और तर्क के तौर पर पैग़म्बर की इस हदीस को पेश करते हैं:
لعن الله الیهود والنصاری إتخذوا قبور أنبیائهم مسجداً‘‘
ख़ुदा लानत करे यहूदीयों व ईसाईयों पर कि उन्होंने अपने नबियों की क़ब्रों को इबादत व पूजा की जगह बना लिया वह यहां तक कहते हैं कि पैग़म्बर अकरम और अन्य व्यक्तियों की क़ब्रों की ज़ियारत के इरादे से यात्रा करना भी हराम है और तर्क के तौर पर पैग़म्बर ही की एक हदीस बयान करते हैं:
’’لا تشد الرحال إلا إلى ثلاثة مساجد: المسجد الحرام،ومسجدي هذا،والمسجد الأقصى‘‘
इब्ने तैमिया ने लिखा है कि केवल वह आदमी पैग़म्बर की क़ब्र पर जा सकता है जो मस्जिदुन नबी की ज़ियारत के इरादे से आया हो और वह भी वहां जाकर प्रार्थना करना, दुआ मांगना या क़ब्र पर हाथ फेरना और उसे चूमना, सब शिर्क और हराम है।
शायद हमारे बहुत से मुसलमान भाई या हमारे जवान भी इन बातों से प्रभावित होकर यह समझ बैठें कि मोमिनों की क़ब्रों पर जाना या नबियों और वलियों के मज़ारों में जाना जाएज़ नहीं है।
एक सामान्य सिद्धांत
जब भी इस तरह का कोई सवाल उठे तो एक मुसलमानों का कर्तव्य है कि वह यह न देखें कि बात किसने कही है बल्कि कुरआन व हदीस और पैग़म्बर के चरित्र को देखें। कुरआन क्या कहता है और पैग़म्बर का चरित्र क्या है, इससे समझ मंे आ जाएगा कि किसी भी समस्या और विषय में इस्लाम का आदेश क्या है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि किसी भी एक आयत या हदीस को देख तुरंत नतीजा नहीं निकाला जा सकता बल्कि सारी आयतों और पैग़म्बर की हदीसों को सामने रखकर किसी हुक्म की खोज की जा सकती है। हां यह संभव है कि किसी विषय या समस्या के बारे में एक या दो ही आयतें और हदीसें हों और पैग़म्बर स. की करनी भी उन्हीं के अनुसार हो तो उससे भी हुक्म का पता चल जाता है। लेकिन जिस मुद्दे के बारे में बहुत सारी आयतें और रिवायतें मौजूद हैं और सम्भव है उनमें देखनें में मतभेद भी पाया जाता है तो ऐसे अवसर पर यह देखना ज़रूरी है कि कुल मिलाकर उन आयतों व रिवायतों में किस चीज़ को बयान किया जा रहा है, अन्यथा किसी एक आयत या हदीस को तर्क बनाकर समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता।
वहाबियों या जो लोग भी धार्मिक समस्याओं में ग़लत मानसिकता का शिकार होते हैं उनकी एक मुश्किल यही है कि वह अपने स्वभाव और विशेष मानसिकता के अनुसार किसी भी हदीस या आयत का चयन करके अपनी बात को साबित करते हैं।
क़ब्रों की ज़ियारत पर कुरआनी प्रमाण
क़ब्रों की ज़ियारत के जाएज़ होने के लिए उल्मा ने जो कुरआनी तर्क और प्रमाण बयान किए हैं उनमें से एक सूरा-ए-तौबा की यह आयत है:
’’وَلاتُصَلِّ عَلی أَحَدٍ مِنْهُمْ مّاتَ ابَداً وَلاتَقُمْ عَلی قَبْرِه انَّهُمْ کَفَرُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِه وَماتُوا وَهُمْ فاسِقُونَ‘‘
कुरआन कहता है यदि मुनाफ़िक़ों और कपटियों में से कोई मर जाए तो उस पर नमाज़ न पढ़िए और उसकी कब्र के पास खड़े होकर (उसकी क्षमा याचना के लिए प्रार्थना न करें) क्योंकि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल का इंकार किया है और वह गुनाह की हालत मरे हैं।
इस आयत में अल्लाह ने कपटियों पर नमाज़ पढ़ने और उनकी क़ब्र के पास जाने और उनके लिए प्रार्थना करने से मना किया है। इसका मतलब यह निकलता है कि जो कपटी व पाखंडी नहीं हैं यानी जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखते हैं उनके कब्र पर जाने और उनके लिए दुआ करने में कोई हरज नहीं है।
۳۔’’زارَ النّبیّ قَبْرَ امِّهِ فَبَکی وابْکی مَنْ حَولَه ... إستأْذَنْتُ رَبِّی فی انْ أَزُورَ قَبرها، فَاذِنَ لِی، فَزُورُوا الْقُبُورَ فَإِنَّها تُذَکِّرُکُمُ الْمَوْتَ‘‘
हदीस में मौजूद प्रमाण
खुद सेहाहे सित्ता में मोमिनों की क़ब्रों की ज़ियारत के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम स.अ के कई हदीसें बयान हुई हैं।
1.    जैसा का कि एक हदीस में आया है:
زُورُوا القبورَ فإنها تُذَکِّرُکم الآخِرَهَ
मोमिनों की क़ब्रों की ज़ियारत को जाओ क्योंकि इससे तुम्हें आख़ेरत (परलोक) की याद आएगी।
2.    एक दूसरी हदीस में फ़रमाते हैः
کُنْتُ نَهَیْتُکُمْ عَنْ زِیارَهِ الْقُبُورِ فَزُورُوا، فَانَّها تُزَهِّدُ فِی الدُّنْیا وَتُذَکِّرُ الآخِرَهَ
मैंने तुम्हें क़ब्रों की ज़ियारत से मना किया था लेकिन अब तुम क़ब्रिस्तान जाकर मोमिनों की ज़ियारत कर सकते हो क्योंकि इससे तुम दुनिया की जंजीरों से मुक्त होकर परलोक को याद करोगे।
3.    زارَ النّبیّ قَبْرَ امِّهِ فَبَکی وابْکی مَنْ حَولَه ... إستأْذَنْتُ رَبِّی فی انْ أَزُورَ قَبرها، فَاذِنَ لِی، فَزُورُوا الْقُبُورَ فَإِنَّها تُذَکِّرُکُمُ الْمَوْتَ‘‘
पैग़म्बर स. ने अपनी मां की कब्र की ज़ियारत की, खुद भी रोए और दूसरों को भी रुलाया और फिर कहा: मैंने ख़ुदा से इस बात की इजाज़त ली कि अपनी मां की क़ब्र की ज़ियारत करूं, इसलिए तुम भी क़ब्रों की ज़ियारत को जाओ क्योंकि इससे तुम्हें अपनी मौत याद रहेगी।
4.    पैग़म्बरे अकरम स. ने अपनी क़ब्र की ज़ियारत की ताकीद है, आप फ़रमाते हैं:
من زار قبري فقد وجبت له شفاعتي
जिसने मेरी क़ब्र की ज़ियारत उसके लिए मेरी शेफ़ाअत (सिफ़ारिश) वाजिब है।
आपने यह भी कहा:
ومن حج فزار قبري بعد وفاتي فكأنما زارني في حياتي
जिसने मेरी मौत के बाद हज किया और मेरी क़ब्र की ज़ियारत की उसने मानो मेरी ज़िंदगी में मेरी ज़ियारत की। (अल-मौजमुल कबीर भाग 12 पेज 301)
कुरआन की इस आयत, पैग़म्बर की हदीसों और उनके चरित्र व सीरत से यही साबित होता है कि मोमिनों की क़ब्र पर जाना और पैग़म्बरे अकरम स.अ. और वलियों के मज़ारों में जाना न केवल जाएज़ है बल्कि ज़िंदगी पर इसके सकारात्मक प्रभाव भी हैं।
और वह हदीसें जिन्हें वहाबी तर्क के तौर पर बयान करते हैं वह एक विशेष स्थिति और पहलू को बयान करती हैं जैसे क़ब्रों को सजदा करना आदि। जिससे किसी भी तरह इस काम को यानी क़ब्रों की ज़ियारत को हराम नहीं कहा जा सकता।
क़ब्रों का निर्माण
दूसरी बात जिसके प्रति वहाबी काफी संवेदनशील हैं, क़ब्रों पर गुम्बद आदि बनाना और उनका निर्माण आदि है। वह इस काम को भी शिर्क और हराम ठहराते हैं और उसे गिराने को वाजिब मानते हैं। उनका कहना है कि लोग इन मजारों पर आकर क़ब्र की पूजा करते हैं और उनके अंदर आराम करने वाली हस्तियों की पूजा करते हैं। इसी लिए पैग़म्बर अकरम स. ने ऐसे कामों से मना किया है जिसका मतलब है कि क़ब्र पर कोई गुंबद और बारगाह नहीं होनी चाहिए और अगर ऐसा होता है तो इसका गिराना वाजिब है। सबसे पहले क़ब्रों और मज़ारों के विध्वंस का फ़्तवा इब्ने तैमिया और उसके चेले इब्ने क़य्यम ने दिया। उसके बाद जब मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने अपना आंदोलन शुरू किया तो हेजाज़ में अपनी इस मानसिकता को व्यहवारिक बनाते हुए मज़ारों को गिराना शुरू कर दिया और आले सऊद ने अपने विशेष लक्ष्यों के लिए क़ब्रिस्तान बक़ीअ और अहलेबैत अ. के मज़ारों को ध्वस्त कर दिया।
यह सब देखकर और सुनकर एक आम मुसलमान के लिए यह सवाल उठता है कि क्या क़ब्र पर गुम्बद बनवाना या उन पर किसी प्रकार का निर्माण करवाना वास्तव में शिर्क और हराम है?
कुरआनी प्रमाण
1.    क़ुरआन मजीद में बयान हुआ है कि जब अस्हाबे कहफ़ की वास्तविकता लोगों के लिए स्पष्ट हो गई तो उन्होंने अल्लाह से दुआ की कि उन्हें फिर उसी हालत में पलटा दे। उसके बाद लोगों ने उस जगह के बारे में दो तरह की राय पेश की : कुछ ने कहा कि हम इस पर एक इमारत बनाते हैं जो उनकी यादगार रहेगी और इस तरह उनकी याद हमेशा ज़िंदा रहेगी और कुछ ने कहा हम इसे इबादत की जगह बनाएंगे। क़ुरआने मजीद ने इन दोनों बातों को बयान किया लेकिन किसी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं जताई है कि उनकी बात सही नहीं थी। अगर कोई आपत्तिजनक बात होती तो कुरआन ज़रूर उसकी आलोचना करता। इस आधार पर पैग़म्बरों और वलियों की क़ब्रों पर गुम्बद या बारगाह बनाना न केवल हराम या आपत्तिजनक काम नहीं है बल्कि एक तरह से उनका सम्मान है।
2.    क़ुरआन सूरा-ए-नूर में फ़रमाता हैः
فِي بُيُوتٍ أَذِنَ اللَّهُ أَنْ تُرْفَعَ وَيُذْكَرَ فِيهَا اسْمُهُ يُسَبِّحُ لَهُ فِيهَا بِالْغُدُوِّ وَالْآصَالِ
इससे पहले वाली आयत में ख़ुदा ने नूर व प्रकाश की बात है कि और इस आयत में इस बात की ओर इशारा क्या है कि यह नूर उन घरों में और स्थानों पर चमकता है जिनमें अल्लाह का ज़िक्र व याद होती है और अल्लाह की तस्बीह की जाती है और ऐसे घरों का यह हक़ है कि उन्हें महिमा, गौरव और सम्मान दिया जाए और उन्हें बढ़ाया जाए। शिया और सुन्नी उल्मा व मुफ़स्सिरों ने इस आयत के संदर्भ में लिखा है कि उन घरों से मुराद केवल मस्जिदें हैं नहीं बल्कि वलियों और नबियों घर और मज़ार भी हैं जिनमें अल्लाह का ज़िक्र, इबादत और उसकी तस्बीह होती है। और ऐसे घरों को ऊंचा, महान व शानदार होना चाहिए।
ऊंचा और महान होने का मतलब?
अब सवाल यह है कि यह महानता व ऊंचाई क्या है? अगर ऊंचाई से मतलब बाहरी ऊंचाई मुराद ली जाए तो इसका मतलब यही है कि चार दीवार बनाई जाए और उस पर बारगाह और मक़बरा आदि बनाया जाए जिस आधार पर नबियों और इमामों और वलियों के मज़ार का निर्माण और  उन पर गुंबद व बारगाह बनाना न केवल वैध बल्कि एक अच्छा काम है।
और अगर आध्यात्मिक महानता व ऊंचाई मुराद है तो उसका एक प्रमाणक यह है कि उनका सम्मान किया जाना चाहिए और दुनिया में महान हस्तियों के सम्मान का एक तरीक़ा उनकी क़ब्रों और मज़ारों का निर्माण है और यह मुसलमानों में शुरू से प्रचलित है। बल्कि क़ब्रों पर निर्माण सहाबा और ताबेईन के ज़माने में भी एक प्रचलित काम था जिस पर किसी ने आपत्ति नहीं जताई।
वहाबियों का तर्क
वहाबी अपनी बात को साबित करने के लिए बहुत सी हदीसें पेश करते हैं जिनमें सबसे महत्वपूर्ण हदीस यही है कि पैगम्बर ने यहूदियों व ईसाईयों पर लानत की है कि वह नबियों की क़ब्रों को मस्जिद बना देते थे और इस आधार पर मुसलमानों को इस प्रक्रिया से रोका है और चूंकि मुसलमान भी इस तरह क़ब्रों और मज़ारों की पूजा करते हैं जो तौहीद व एकेश्वरवाद के खिलाफ और शिर्क है इसलिए कब्र पर निर्माण जाएज़ नहीं है।
इस हदीस का विवरण
पैग़म्बरे अकरम स. ने इसलिए यहूदियों व ईसाइयों पर लानत की है क्योंकि वह नबियों की क़ब्रों को अपना क़िबला बताते थे और उनकी तरफ़ रुख़ करके नमाज़ पढ़ते थे और पैगम्बर ने मुसलमानों को ऐसा करने से मना किया। अगर यहूदी और ईसाई ऐसा करते थे और इस वजह से उन पर लानत की गई तो मुसलमानों को इसकी चपेट में लेना कहां तक सही है, जबकि कोई भी मुसलमान पैग़म्बरे अकरम, अहलेबैत या सहाबा की क़ब्रों को क़िबला नहीं मानता।
दूसरी बात यह अगर कोई समझता है कि मुसलमान क़ब्र की पूजा करते हैं या क़ब्र की इबादत करते हैं तो वह ग़लत समझता है। किसी की क़ब्र पर जाना, उसे सलाम करना, उस स्थान पर प्रार्थना करना, उसकी पूजा नहीं बल्कि केवल उसका सम्मान है और इबादत वास्तव में अल्लाह की ही है।
और अगर कोई उनकी पूजा का गुनाह करता भी है तो इसका मतलब यह नहीं उस जगह को गिरा दिया जाए, यह काम खुद एक गुनाह और अक्षम्य अपराध है।
जन्नतुल बक़ीअ और दूसरे मज़ारों के विध्वंस का उद्देश्य
पाक मज़ारों के विध्वंस के पीछे जो उद्देश्य हैं उनमें दो लक्ष्य बहुत महत्वपूर्ण हैं:
1. इस्लाम के इतिहास से जुड़ी सभी निशानियों को मिटा देना और इस्लाम को एक मिथक धर्म बनाकर पेश करना
2. वह हस्तियां जिनके यह मज़ार हैं और अन्य ऐतिहासिक स्थल जिनके नाम से नामित हैं, लोगों के दिल और दिमाग से उनकी याद को मिटाना ताकि वह दुनिया के सामने उदाहरण न बन सकें।
लेकिन उन्हें नहीं पता कि अल्लाह के नूर को मिटाना सम्भव नहीं है।


source : abna24
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