हमने पहले सबक़ में पढ़ा कि अगर हम ख़ुदा के भेजे हुए दीन और उस के ज़रिये बनाये गये उसूल और क़ानून का पालन करें तो दुनिया व आख़िरत में सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं। सिर्फ़ वह व्यक्ति भाग्यवान और ख़ुशबख़्त है जो अपनी ज़िन्दगी को गुमराही और पथभ्रष्ठता में न गुज़ारे बल्कि अच्छे अख़लाक़ के साथ नेक काम अंजाम दे, इस्लाम धर्म ने भी इस सौभ्गय की तरफ़ इस अंदाज़ में निमंत्रण दिया है:
उन सही अक़ीदों का सम्मान करो जिस को तुम ने अपनी अक़्ल और फ़ितरत के ज़रिये स्वीकार किया है।
नेक और अच्छा अख़लाक़ रखो।
हमेशा नेक और अच्छे कार्य करो।
इस बुनियाद पर दीन तीन चीज़ों का संग्रह है:
1. अक़ीदे या उसूले दीन
2. अख़लाक़
3. अहकाम व अमल
अक़ीदे व उसूले दीन
अगर हम अपनी अक़्ल व समझ का सहारा लें तो मालूम होगा कि इतनी बड़ी दुनिया और उसकी आश्चर्य जनक व्यवस्था ख़ुद ब ख़ुद अस्तित्व में नहींं आ सकती और उसमें पाया जाने वाला यह नज़्म बग़ैर किसी नज़्म देने वाले के वुजूद में नहीं आ सकता बल्कि ज़रुर कोई ऐसा पैदा करने वाला है जिसने अपने असीमित ज्ञान एवं शक्ति और तदबीर के ज़रिये इस दुनिया को बनाया है और वही उस की व्यवस्था को एक मज़बूत क़ानून के साथ चला रहा है, उसने कोई चीज़ बिना मक़सद के पैदा नहीं की है और दुनिया की छोटी बड़ी कोई भी चीज़ उस के क़ानून से बाहर नहीं है।
इसी तरह इस बात को भी नहीं माना जा सकता कि ऐसा दयालु ख़ुदा जिसने अपनी दया और कृपा के ज़रिये इंसान को पैदा किया है वह इँसानी समाज को उस की अक़्ल पर छोड़ दे जो अधिकतर अपनी इच्छाओं की पूर्ति में लगी रहती है लिहाज़ा ज़रुरी है कि खु़दा ऐसे नबियों के ज़रिये कुछ उसूल व क़वानीन भेजे जो मासूम हो यानी जिन से ग़लती न होती हो और यह भी ज़रुरी है कि ख़ुदा कुछ ऐसे लोगों को आख़िरी नबी का जानशीन बनाये जो उन के बाद उन के दीन को आगे बढ़ाये और नबी की भाति ख़ुद भी मासूम हों।
चूँकि ख़ुदा के बताए हुए रास्ते पर अमल करने या न करने की जज़ा या सज़ा इस महदूद और मिट जाने वाली दुनिया में पूरी तरह से ज़ाहिर नहीं हो सकती लिहाज़ा ज़रुरी है कि एक ऐसा मरहला हो जहाँ इंसान के अच्छे या बुरे कामों का ईनाम या सज़ा दी जा सके। किताब के अगले भाग में इसी के बारे में बताया जायेगा।
अख़लाक़
दीन हमें आदेश देता है कि अच्छी सिफ़तों और आदतों को अपनायें, हमेशा ख़ुद को अच्छा बनाने की कोशिश करें। फ़र्ज़ शिनास, ख़ैर ख़्वाह, मेहरबान, ख़ुशमिज़ाज
और दूसरों से मुहब्बत रखने वाले बनें, हक़ की तरफ़दारी करें, ग़लत का कभी साथ न दें, कहीं भी हद से आगे न बढ़ें, दूसरों की जान, माल, ईज़्ज़त का ख़्याल रखें, इल्म हासिल करने में सुस्ती न करें, ख़ुलासा यह कि ज़िन्दगी के हर मरहले में अदालत की रिआयत करें।
अहकाम व अमल
दीन हमें यह भी आदेश देता है कि हम वह काम अंजाम दें जिस में हमारी और समाज की भलाई हो और उन कामों से बचें जो इंफ़ेरादी या समाजी ज़िन्दगी में फ़साद या बुराई का सबब बनते हैं। इबादत की सूरत में ऐसे आमाल अंजाम दें जो बंदगी और फ़रमाँ बरदारी की अलामत हैं जैसे नमाज़, रोज़ा और उस के अलावा तमाम वाजिबात को अंजाम दें और तमाम हराम चीज़ों से परहेज़ करें।
यही वह क़वानीन हैं जो दीन लेकर आया है और जिस की तरफ़ हमे दावत देता है ज़ाहिर है कि उन में से बाज़ क़वानीन ऐतेक़ादी है यानी उसूले दीन से मुतअल्लिक़ हैं, बाज़ अख़लाक़ी है और बाज़ अमली हैं, दीन के यह तीनों हिस्से एक दूसरे से जुदा नहीं हैं बल्कि जंजीर की कड़ियों की तरह एक दूसरे से मिले हुए हैं। इन्ही क़वानीन पर अमल करके इंसान सआदत हासिल कर सकता है।