इमामत तन्हा ज़ाहिरी तौर पर हुकूमत करने का मंसब नही है बल्कि यह एक बहुत बलन्दो बाला रूहानी व मअनवी मंसब है। हुकूमते इस्लामी की रहबरी के इलावा दीनो दुनिया के तमाम उमूर में लोगो की हिदायत करना भी इमाम की ज़िम्मेदारी में शामिल है। इमाम लोगों की रूही व फ़िक्री हिदायत करते हुए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की शरीयत को हर तरह की तहरीफ़ से बचाता है और पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को जिन मक़ासिद के तहत मंबूस किया गया था उनको मुहक़्क़क़ करता है।
यह वह बलन्द मंसब है,जो अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को नबूवत व रिसालत की मनाज़िल तय करने के बाद, मुताद्दिद इम्तेहान ले कर अता किया और यह वह मंसब है जिस के लिए हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने दुआ की थी कि पालने वाले यह मंसब मेरी औलाद को भी अता करना और उन को इस दुआ का जवाब यह मिला कि यह मंसब ज़ालिमों और गुनाहगारों को नही मिल सकता। “व इज़ इबतला इब्राहीमा रब्बहु बिकलिमातिन फ़अतम्मा हुन्ना क़ाला इन्नी जाइलुका लिन्नासि इमामन क़ाला व मिन ज़ुर्रियति क़ाला ला यना3लु अहदि अज़्ज़ालिमीना ”[128] यानी उस वक़्त को याद करो जब इब्राहीम के रब ने चन्द कलमात के ज़रिये उनका इम्तेहान लिया और जब उन्होंने वह इम्तेहान तमाम कर दिया तो उन से कहा गया कि हम ने तुम को लोगों का इमाम बना दिया,जनाबे इब्राहीम ने अर्ज़ किया और मेरी औलाद ? (यानी मेरी औलाद को भी इमाम बनाना) अल्लाह ने फ़रमाया कि मेरा यह मंसब (इमामत) ज़ालिमों तक नही पहुँचता ( यानी आप की ज़ुर्रियत में से सिर्फ़ मासूमीन को हासिल हो गा।
ज़ाहिर है कि इतना अज़ीम मंसब सिर्फ़ ज़ाहिरी हुकूमत तक महदूद नही है,और अगर इमामत की इस तरह तफ़्सीर न की जाये तो मज़कूरह आयत का कोई मफ़हूम ही बीक़ी नही रह जायेगा।
हमारा अक़ीदह है कि तमाम उलुल अज़्म पैग़म्बर मंसबे इमामत पर फ़ाइज़ थे। उन्होंने अपनी जिस रिसालत का इबलाग़ किया उस को अपने अमल के ज़रिये मुहक़्क़क़ किया, वह लोगों के मानवी व माद्दी और ज़ाहिरी व बातिनी रहबर रहे। मख़सूसन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) अपनी नबूवत के आग़ाज़ से ही इमामत के अज़ीम मंसब पर भी फ़ाइज़ थे लिहाज़ उन के कामों को सिर्फ़ अल्लाह के पैग़ाम को पहुँचाने तक ही महदूद नही किया जा सकता।