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समूह के रूप मे प्रार्थना का महत्तव

समूह के रूप मे प्रार्थना का महत्तव

लेखक: आयतुल्लाह हुसैन अनसारियान

                          

किताब का नाम: शरहे दुआ ए कुमैल

 

जिस समय प्रार्थना करने वाले एकत्रित होकर एक समूह के रूप मे रोते हुए परमेश्वर के सामने अपने हाथो को फैसाकर प्रार्थना और निवेदन करते है तो निश्चित रूप से उनकी विनती और प्रार्थना परमेश्वर के यहा स्वीकार होने वाली होती है; क्योकि प्रार्थना करने वालो की संख्या निसंदेह दर्द दिल, गरीबी, लाचारी, आशीक़ी, महत्तवपूर्ण रहस्यवादी (आरिफ़) और ईमानदारी के माध्यम से होती है, प्रार्थना और विलाप उसकी ईमानदारी, इमरजेंसी और कराहना, दया और करूणा को आकर्षित करने और जवाब देने और जोश माफ एवम क्षमा करने का कारण है। धर्मशास्त्रो मे यह बात आई है कि दयालु ईश्वर उसकी वजह से दुसरो की प्रार्थना को स्वीकारता है और उनका विलाप एवम कराहना दया, मांगो और आवश्यकताऔ को पूरा करता है और उनको माफ़ एवम क्षमा किये हुए मनुष्यो मे गिनता एवम उनके ख़ाली कशकोल को अपनी विशेष दया से परिपूर्ण भर देता है।

इस संदर्भ (प्रसंग) मे वही के सोत्र से, बहुत अधिक महत्वपूर्ण कथन (रिवायात) ज्ञान की मंज़िलो और ख़ज़ानो और दया के दरवाज़ो तक पहुँचे है जिनमे से कुछ उल्लेखनीय है।

इमाम सादिक़ (अलैहिस्सलाम – शियो के छठे इमाम) ने कहा:  

مَا أجتَمَعَ أربَعۃٔ قَطُّ عَلَی أمرٕ وَاحَد فَدعوا إِلَّا تَفَرّقُوا عَن إِجَابَۃ

मा अजतमआ अरबअतुन क़त्तो अला अमरिन वाहेदिन फ़दऔ इल्ला तफ़र्राक़ू अन[1]

चार मनुष्य किसी कार्य को बढावा देने हेतु प्रार्थना के लिए एकत्रित नही होते, परन्तु प्रार्थना के स्वीकार होने के पशचात एक दूसरे से अलग हो जाते है।

पैगंबर (स.अ.व.अ.व.) ने कहा (फ़रमाया):

لَا یَجتَمِعُ أربَعُونَ رَجُلاً فِی أمر وَاحِد اِلَّا أستَجَابَ أللہُ تَعَالَی حَتَّی لَھُم لَو دَعَوا عَلَی جَبَل لَأزَالُوہُ

ला यजतमेओ अरबऊना रजोलन फ़ी अमरिन वाहेदिन इल्लस्तजाबल्लाहो तआला हत्ता लहुम लौ दऔ अला जबलिन लअज़ालूहू[2]

चालीस मनुष्य किसी कार्य को बढावा देने हेतु प्रार्थना के लिए एकत्रित नही होते, मगर यह कि परमेश्वर उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर ले, यहा तक अगर वो पर्वत हटाने के लिए प्रार्थना करे तो वह उसको हटा देगा।

विद्वान शेख़ हुर्रे आमुली वसाएलुश्शिया नाम की पुस्तक मे एक रिवायत करते है:

إِنَّ أللہَ أوحَی إلَی عِیسیٰ ؑ : یَا عِیسیٰ، تَقَرَّب إلَی ألمُؤمِنِینَ، وَ مَرھُم أَن یَدعُونِی مَعَکَ

इन्नल्लाहा औहा इला ईसा (अ.स.): या ईसा, तक़र्रब एल्लमोमेनीना, वमरहुम अन यदऊनी मअका[3]

परमेश्वर ने ईसा के पास स्वर्गीदूत को भेजा: या ईसा विश्वासीयो (मोमेनीन) के साथ शामिल हो जाओ और उनसे कहो कि तुम्हारे साथ मुझ से प्रार्थना करें।

इमाम सादिक़ (अ.स.) ने कहा:

کَان أبِی (علیہ السلام) إذَا خَزَنَہُ أمر جَمَعَ ألنِسَاءَ وَ ألصِبیَانَ ثُمَّ دَعَا وَأمَّنُوا

काना अबि (अ.स.) एज़ा ख़ज़नहू अमरिन जमअन नेसाआ वस्सिबयाना सुम्मा दआ वअम्मनू [4]

मेरे पिता सदैव इस प्रकार थे, अगर कोई कार्य उनको दुखि अथवा क्रोधित करता, तो महिलाऔ और बच्चो को एकत्रित करके प्रार्थना (दुआ) करते और वो सब आमीन कहते।



[1] अलकाफ़ी, भाग 2, पेज 487, पाठ अलइजतेमाओ फ़िद्दोआ, हदीस 2; जामेऐ अहादीसुस्शिया, भाग 19, पेज 354

[2] मुस्तकरकुल वसाइल, भाग 5, पेज 239, पाठ 36, हदीस 5772; जामेऐ अहादीसुस्शिया, भाग 19, पेज 354

[3] वसाएलुश्शिया, भाग 7, पेज 104, पाठ 38, हदीस 8856; आलामुद्दीन, पेज 229

[4] वसाएलुश्शिया, भाग 7, पेज 105, पाठ 39, हदीस 8860; इद्दतुद्दाई, पेज 158

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