हमारा अक़ीदह है कि तौहीद की बहुत सी क़िस्में हैं जिन में से यह चार बहुत अहम हैं।
तौहीद दर ज़ात
यानी उसकी ज़ात यकता व तन्हा है और कोई उसके मिस्ल नही है
तौहीद दर सिफ़ात
यानी उसके सिफ़ात इल्म, क़ुदरत, अज़लीयत,अबदियत व .....तमाम उसकी ज़ात में जमा हैं और उसकी ऐने ज़ात हैं। उसके सिफ़ात मख़लूक़ात के सिफ़ात जैसे नही हैं क्योँ कि मख़लूक़ात के तमाम सिफ़ात भी एक दूसरे से जुदा और उनकी ज़ात भी सिफ़ात से जुदा होती है। अलबत्ता ऐनियते ज़ाते ख़ुदा वन्द बा सिफ़ात को समझ ने के लिए दिक़्क़त व ज़राफते फ़िकरी की जरूरत है।
तौहीद दर अफ़आल
हमारा अक़ीदह है कि इस आलमें हस्ति में जो अफ़आल,हरकात व असरात पाये जाते हैं उन सब का सरचश्मा इरादए ईलाही व उसकी मशियत है। “अल्लाहु ख़ालिकु कुल्लि शैइन व हुवा अला कुल्लि शैइन वकील ”[1] यानी हर चीज़ का ख़ालिक़ अल्लाह है और वही हर चीज़ का हाफ़िज़ व नाज़िर भी है। “लहु मक़ालीदु अस्समावाति व अलअर्ज़ि ” [2]तमाम ज़मीन व आसमान की कुँजियाँ उसके दस्ते क़ुदरत में हैं।
“ला मुअस्सिरु फ़ी अलवुजूदि इल्ला अल्लाहु ” इस जहाने हस्ति में अल्लाह की ज़ात के अलावा कोई असर अन्दाज़ नही है।
लेकिन इस बात का हर गिज़ यह मतलब नही है कि हम अपने आमाल में मजबूर है,बल्कि इसके बर अक्स हम अपने इरादोँ व फ़ैसलों में आज़ाद हैं “इन्ना हदैनाहु अस्सबीला इम्मा शाकिरन व इम्मा कफ़ूरन ” [3]हम ने (इँसान)की हिदायत कर दी है (उस को रास्ता दिखा दिया है)अब चाहे वह शुक्रिया अदा करे (यानी उसको क़बूल करे)या कुफ़्राने नेअमत करे (यीनू उसको क़बूल न करे)। “व अन लैसा लिल इँसानि इल्ला मा सआ ” [4] यानी इँसान के लिए कुछ नही है मगर वह जिसके लिए उसने कोशिश की है। क़ुरआन की यह आयत सरीहन इस बात की तरफ़ इशारा कर रही है कि इँसान अपने इरादे में आज़ाद है , लेकिन चूँकि अल्लाह ने इरादह की आज़ादी और हर काम को अँजाम देने की क़ुदरत हम को अता की है,हमारे काम उसकी तरफ़ इसनाद पैदा करते हैं इसके बग़ैर कि अपने कामों के बारे में हमारी ज़िम्मेदारी कम हो- इस पर दिक़्क़त करनी चाहिए। हाँ उसने इरादह किया है कि हम अपने आमाल को आज़ादी के साथ अँजाम दें ताकि वह इस तरीक़े से वह हमारी आज़माइश करे और राहे तकामुल में आगे ले जाये, क्योँ कि इँसानों का तकामुल तन्हा आज़ादीये इरादह और इख़्तियार के साथ अल्लाह की इताअत करने पर मुन्हसिर है, क्योँ कि आमाले जबरी व बेइख़्तियारी न किसी के नेक होने की दलील है और न बद होने की।
असूलन अगर हम अपने आमाल में मजबूर होते तो आसमानी किताबों का नज़ूल, अंबिया की बेसत, दीनी तकालीफ़ व तालीमो तरबीयत और इसी तरह से अल्लाह की तरफ़ से मिलनी वाली सज़ा या जज़ा ख़ाली अज़ मफ़हूम रह जाती।
यह वह चीज़ हैं जिसको हमने मकतबे आइम्मा-ए-अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम से सीखा है उन्होँने हम से फ़रमाया है कि “न जबरे मुतलक़ सही है न तफ़वाज़े मुतलक़ बल्कि इन दोनों के दरमियान एक चीज़ है, ला जबरा व ला तफ़वीज़ा व लाकिन अमरा बैना अमरैन ”[5]
तौहीद दर इबादत
यानी इबादत सिर्फ़ अल्लाह से मख़सूस है और उसकी ज़ाते पाक के अलावा किसी माबूद का वुजूद नही है। तौहीद की यह क़िस्म सबसे अहम क़िस्म है और इस की अहमियत इस बात से आशकार हो जाती है कि अल्लाह की तरफ़ से आने वाले तमाम अंबिया ने इस पर ही ज़्यादा ज़ोर दिया है “व मा उमिरू इल्ला लियअबुदू अल्लाहा मुख़लिसीना लहु अद्दीना हुनफ़आ..... व ज़ालिका दीनु अलक़य्यिमति ”[6] यानी पैग़म्बरों के इसके अलावा कोई हुक्म नही दिया गया कि तन्हा अल्लाह की इबादत करें, और अपने दीन को उसके लिए खालिस बनाऐं और तौहीद में किसी को शरीक क़रार देने से दूर रहें .....और यही अल्लाह का मोहकम आईन है।
अख़लाक़ व इरफ़ान के तकामुल के मराहिल को तय करने से तौहीद और अमीक़तर हो जाती है और इँसान इस मँज़िल पर पहुँच जाता है कि फ़क़त अल्लाह से लौ लगाये रखता है,हर जगह उसको चाहता है उसके अलावा किसी ग़ैर के बारे में नही सोचता और कोई चीज़ उसको अल्लाह से हटा कर अपनी तरफ़ मशग़ूल नही करती। कुल्ला मा शग़लका अनि अल्लाहि फ़हुवा सनमुका यानी जो चीज़ तुझ को अल्लाह से दूर कर अपने में उलझा ले वही तेरा बुत है।
हमारा अक़ीदह है कि तौहीद फ़क़त इन चार क़िस्मों पर ही मुन्हसिर नही है,बल्कि-
तौहीद दर मालकियत यानी हर चीज़ अल्लाह की मिल्कियत है। “ लिल्लाहि मा फ़ी अस्समावाति व मा फ़ी अलअर्ज़ि ”[7]
तौहीद दर हाकमियत यानी क़ानून फ़क़त अल्लाह का क़ानून है। “व मन लम यहकुम बिमा अनज़ला अल्लाहु फ़उलाइका हुमुल काफ़ीरूना ”[8] यानी जो अल्लाह के नाज़िल किये हुए (क़ानून के मुताबिक़) फ़ैसला नही करते काफ़िर हैं।
7)हमारा अक़ीदह है कि अस्ले तौहीदे अफ़आली इस हक़ीक़त की ताकीद करती है कि अल्लाह के पैग़म्बरों ने जो मोजज़ात दिखाए हैं वह अल्लाह के हुक्म से थे, क्योँ कि क़ुरआने करीम हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बारे में फ़रमाता है कि “व तुबरिउ अलअकमहा व अलअबरसा बिइज़नि व इज़ तुख़रिजु अलमौता बिइज़नि ”[9] यानी तुम ने मादर ज़ाद अँधों और ला इलाज कोढ़ियों को मेरे हुक्म से सेहत दी!और मुर्दों को मेरे हुक्म से ज़िन्दा किया।
और जनाबे सुलेमान अलैहिस्सलाम के एक वज़ीर के बारे में फ़रमाया कि “क़ाला अल्लज़ी इन्दहु इल्मुन मिन अलकिताबि अना आतिका बिहि क़बला अन यरतद्दा इलैका तरफ़ुका फ़लम्मा रआहु मुस्तक़िर्रन इन्दहु क़ाला हाज़ा मिन फ़ज़लि रब्बि” यानी जिस के पास (आसमानी )किताब का थोड़ा सा इल्म था उसने कहा कि इस से पहले कि आप की पलक झपके मैं उसे (तख़्ते बिलक़ीस)आप के पास ले आउँगा,जब हज़रत सुलेमान ने उसको अपने पास ख़ड़ा पाया तो कहा यह मेरे परवरदिगार के फ़ज़्ल से है।
इस बिना पर जनाबे ईसा की तरफ़ अल्लाह के हुक्म से लाइलाज बीमारों को शिफ़ा (सेहत) देने और मुर्दों को ज़िन्दा करने की निसबत देना, जिसको क़ुरआने करीम ने सराहत के साथ बयान किया है ऐने तौहीद है।
[1] सूरए ज़ुमर आयत न.62
[2] सूरए शूरा आयत न. 12
[3] सूरए इँसान आयत न. 3
[4] सूरए नज्म आयत न. 39
[5]उसूले काफ़ी जिल्द अव्वल पोज न. 160 (बाबे जब्र व अलक़द्र व अलअम्र बैना अमरैन।
[6] सूरए बय्यिनह आयत न.5
[7] सूरए बक़रह आयत न. 284
[8] सूरए मायदह आयत न. 44
[9] सूरए मायदह आयत न. 110
source : http://al-shia.org