फ़रिश्तों के वुजूद पर हमारा अक़ीदह है कि और हम मानते हैं कि उन में से हर एक की एक ख़ास ज़िम्मेदारी है-
एक गिरोह पैगम्बरों पर वही ले जाने पर मामूर हैं[1]।
एक गिरोह इँसानों के आमाल को हिफ़्ज़ करने पर[2]
एक गिरोह रूहों को क़ब्ज़ करने पर[3]
एक गिरोह इस्तेक़ामत के लिए मोमिनो की मदद करने पर[4]
एक गिरोह जँग मे मोमिनों की मदद करने पर[5]
एक गिरोह बाग़ी कौमों को सज़ा देने पर[6]
और उनकी एक सबसे अहम ज़िम्मेदारी इस जहान के निज़ाम में है।
क्योँ कि यह सब ज़िम्मेदारियाँ अल्लाह के हुक्म और उसकी ताक़त से है लिहाज़ अस्ले तौहीदे अफ़आली व तौहीदे रबूबियत की मुतनाफ़ी नही हैं बल्कि उस पर ताकीद है।
ज़िमनन यहाँ से मस्ला-ए-शफ़ाअते पैग़म्बरान, मासूमीन व फ़रिश्तेगान भी रौशन हो जाता है क्योँ कि यह अल्लाह के हुक्म से है लिहाज़ा ऐने तौहीद है। “मा मिन शफ़ीइन इल्ला मिन बअदि इज़निहि[7] ” यानी कोई शफ़ाअत करने वाला नही है मगर अल्लाह के हुक्म से।
मस्ला ए शफ़ाअत और तवस्सुल के बारे में और ज़्यादा शरह (व्याख्या) नबूवते अंबिया की बहस में देँ गे।
source : http://al-shia.org