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Wednesday 15th of January 2025
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मस्ला-ए-तवस्सुल

हमारा अक़ीदह है कि मस्ला- ए- तवस्सुल भी मस्ला-ए- शफ़ाअत की तरह है। मस्ला-एतवस्सुल मानवी व माद्दी मुश्किल में घिरे इँसानों को यह हक़ देता है कि वह अल्लाह के वलीयों से तवस्सुल करें ताकि वह अल्लाह की इजाज़त से उन की मुश्किलों के हल को अल्लाह से तलब करें। यानी एक तरफ़ तो ख़ुद अल्लाह की बारगाह में दुआ करते हैं दूसरी तरफ़ अल्लाह के वलियों को वसीला क़रार दे। लव अन्ना हुम इज़ ज़लमू अनफ़ुसाहुम जाउका फ़स्तग़फ़रू अल्लाहा व अस्तग़फ़रा लहुम अर्रसूलु लवजदू अल्लाहा तव्वाबन रहीमन[1] यानी अगर यह लोग उसी वक़्त तुम्हारे पास आ जाते जब इन्होंने अपने ऊपर ज़ुल्म किया था और अल्लाह से अपने गुनाहों की माफ़ी माँगते और रसूल भी उनके लिए तलबे मग़फ़ेरत करते तो अल्लाह को तौबा क़बूल करने वाला और रहम करने वाला पाते।

हम जनाबे यूसुफ़ के भाईयों की दास्तान में पढ़ते हैं कि उन्होंने अपने वालिद से तवस्सुल किया और कहा कि या अबाना इस्तग़फ़िर लना इन्ना कुन्ना ख़ातेईनायानी ऐ बाबा हमारे लिए अल्लाह से बख़शिश की दुआ करो क्योँ कि हम ख़ताकार थे। उन के बूढ़े वालिद हबज़रत याक़ूब (अ.)ने जो कि अल्लाह के पैग़म्बरे थे उनकी इस दरख़्वास्त को क़बूल किया और उनकी मदद का वादा करते हुए कहा किसौफ़ा अस्तग़फ़िरु लकुम रब्बि[2]मैं जल्दी ही तुम्हारे लिए अपने रब से मग़फ़ेरत की दुआ करूँगा। यह इस बात पर दलील है कि गुज़िश्ता उम्मतों में भी तवस्सुल का वुजूद था और आज भी है।

लेकिन इँसान को इस हद से आगे नही बढ़ना चाहिए औलिया-ए- ख़ुदा को इस अम्र में मुस्तक़िल और अल्लाह की इजाज़त से बेनियाज़ नही समझना चाहिए क्योँ कि यह कुफ़्रो शिर्क का सबब बनता है।

और न तवस्सुल को औलिया- ए- ख़ुदा की इबादत के तौर पर करना चाहिए क्योँ कि यह भी कुफ़्र और शिर्क है। क्योँ कि औलिया- ए- ख़ुदा अल्लाह की इजाज़त के बग़ैर नफ़े नुक़्सान के मालिक नही है। क़ुल ला अमलिकु नफ़्सी नफ़अन व ला ज़र्रन इल्ला मा शा अल्लाह[3]यानी इन से कह दो कि मैं अपनी ज़ात के लिए भी नफ़े नुख़्सान का मालिक नही हूँ मगर जो अल्लाह चाहे। इस्लाम के तमाम फ़िर्क़ों की अवाम के दरमियान मस्ला-ए- तवस्सुल के सिलसिले में इफ़रात व तफ़रीत पाई जाती है उन सब को हिदायत करनी चाहिए।



[1] सूरए निसा आयत न.64

[2] सूरए यूसुफ़ आयत न. 97-98

[3] सूरए आराफ़ आयत न. 188


source : http://al-shia.org/html/hin/
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