इमाम अली अ.स. ने यह जानते हुए कि पैग़म्बर स.अ. की वफ़ात के बाद ख़िलाफ़त, इमामत और रहबरी मेरा हक़ है और मुझ से मेरे इस हक़ के छीनने वाले ज़ुल्म कर रहे हैं (शरहे नहजुल-बलाग़ा, इब्ने अबिल हदीद, जिल्द 20, पेज 283, अल-शाफ़ी फ़िल-इमामह, जिल्द 3, पेज 110, बिहारुल अनवार, जिल्द 29, पेज 628)
लेकिन जैसे ही समझा कि अपने हक़ को वापस लेने का वह उचित समय नहीं है और ऐसा करने से मुसलमानों की एकता भंग हो सकती है और दुश्मन इस से फ़ायदा उठा सकता है आपने अपने हक़ को छोड़ दिया। (शरहे नहजुल-बलाग़ा, इब्ने अबिल हदीद, जिल्द 1, पेज 307, अल-इरशाद, शैख़ मुफ़ीद, जिल्द 1, पेज 245)
आप जब सबसे बड़े ज़ुल्म का शिकार हुए और वह आपके जीवन के सबसे कठिन दिनों में से एक था तो आपने उस पर भी धैर्य रखते हुए फ़रमाया, मैंने उस समय धैर्य रखा जब कांटा मेरी आंखों में और हड्डी मेरे गले में फंसी हुई थी, मैं केवल अपनी विरासत को लुटते हुए देख रहा था। (नहजुल-बलाग़ा, ख़ुतबा 3) इतना सब कुछ इमाम अली अ.स. जैसे बहादुर इंसान के साथ हो गया लेकिन वह केवल मुसलमानों की एकता और एकजुटता के बाक़ी रहने के लिए हर मुश्किल और कठिनाई पर धैर्य रखते हुए उसे सहन करते रहे।
जबकि इमाम अली अ.स. जिन लोगों ने आपके हक़ को आपसे छीना था उनको झूठा, मक्कार और ग़द्दार ही समझते थे, जैसा कि सही मुस्लिम में रिवायत मौजूद है कि उमर ने इमाम अली अ.स. और इब्ने अब्बास से कहा कि, पैग़म्बर स.अ. की वफ़ात के बाद अबू बकर ने तुम दोनों से कहा मैं पैग़म्बर स.अ. का ख़लीफ़ा हूं तुम लोगों ने उन्हें झूठा, मक्कार और ग़द्दार कहा, जब अबू बकर की वफ़ात के बाद मैंने यही कहा कि अब अबू बकर के बाद मैं पैग़म्बर स.अ. का ख़लीफ़ा हूं तो तुम दोनों ने मुझे भी झूठा, मक्कार और ग़द्दार कहा। (सही मुस्लिम, जिल्द 5, पेज 152, फ़त्हुल बारी, जिल्द 6, पेज 144, कन्ज़ुल उम्माल, जिल्द 7, पेज 241)
ध्यान देने की बात यह है कि यह क़िस्सा उमर की ज़िंदगी के आख़िरी दिनों का है, और इमाम अली अ.स. और इब्ने अब्बास उस समय भी अपनी कही हुई बात पर डटे रहे।
इन सब बातों के बाद कि आपका हक़ छीन लिया गया, आप उनसे नाराज़ थे लेकिन आपने उम्मत और मुसलमानों की एकता को बाक़ी रखने और मुसलमानों को आपसी मतभेद से बचाने के लिए आपने धैर्य से काम लिया, यही नहीं बल्कि जहां उन लोगों को आपकी ज़रूरत होती थी या आपसे कोई दीनी मसला पूछते थे आप उनकी मदद करते थे।
इमाम अली अ.स. इस बात में यक़ीन रखते थे कि जब दो विचार आपस में टकराएंगे तो उन में से एक का बातिल होना तय है, यानी हक़ हमेशा बातिल के मुक़ाबले पर रहेगा, और यह दोनों कभी एक साथ जमा नहीं हो सकते। (नहजुल-बलाग़ा, कलेमाते क़ेसार 183)
यही कारण है कि जब इमाम अली अ.स. से एक यहूदी ने इमामत और ख़िलाफ़त पर आपत्ति जताते हुए कटाक्ष किया कि तुम लोगों ने अपने पैग़म्बर स.अ. को दफ़्न करने से पहले ही उनके बारे में मतभेद शुरू कर दिए, तो आपने जवाब दिया कि, हमारा मतभेद पैग़म्बर स.अ. को लेकर बिल्कुल नहीं था, बल्कि हमारा मतभेद उनकी हदीस के मतलब को लेकर था, लेकिन तुम यहूदियों के पैर दरिया से निकल कर सूखे भी नहीं थे और तुम लोगों ने हज़रत मूसा अ.स. से कह दिया था कि बुत परस्तों की तरह हमारे लिए भी ख़ुदा का प्रबंध करो और फिर जवाब में हज़रत मूसा अ.स. ने तुम लोगों के बारे में कहा था कि तुम लोग कितने जाहिल और अनपढ़ हो। (नहजुल-बलाग़ा, सुब्ही सालेह, कलेमाते क़ेसार, 317)
इसी नहजुल-बलाग़ा में मौजूद इमाम अली अ.स. का फ़रमान आज भी कानों में गूंजता है कि, हमेशा इस्लामी समाज से जुड़े रहो, क्योंकि अल्लाह की मदद वहीं है जहां एकता हो, और ख़बरदार आपसी फूट से हमेशा बचो क्योंकि जब आपस में बट कर कम बचोगे तो शैतान का निवाला बन जाओगे, जैसे कम भेड़ों का झुंड भेड़िये का शिकार हो जाता है। एक और जगह आप ने एक ख़त में लिखा कि आपसी भाईचारे की कोशिश हमेशा जारी रखो, आपस में एक दूसरे पर ख़र्च करो, और एक दूसरे से कभी मुंह मत मोड़ो। (नहजुल-बलाग़ा, ख़त न. 47)