पुस्तक का नामः पश्चाताप दया का आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला अनसारीयान
इस से पहले लेख मे हमने उन चीज़ो का विस्तार किया जिनके बाद पश्चाताप करने के लिए असतग़फ़ेरूल्लाह कहे और मे यह बात कही थी के पश्चाताप करने वाले को इस प्रकार पश्चाताप करना चाहिए, पापो को त्यागने का पक्का इरादा कर ले, पापो की ओर पलट कर जाने का इरादा सदैव के लिए अपने हृदय से निकाल दे, दूसरी तीसरी बार पश्चाताप की आशा मे पापो को न करे, क्योकि इस प्रकार की आशा निसंदेह रूप से शैतानी आशा तथा मसख़रा करने वाली हालत है। इस लेख मे इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के कथन का अध्ययन करेगें।
हजरत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम एक रिवायत के संदर्भ मे कहते हैः
مَنِ اسْتَغْفَرَ بِلِسَانِهِ وَلَمْ يَنْدَمْ بِقَلْبِهِ فَقَدِ اسْتَهْزَأَ بِنَفْسِهِ . . .
मनिस्तग़फ़रा बेलेसानेहि वलम यनदम बेक़वबेहि फ़क़दिस्तहज़आ बेनफ़सेहि ...[1]
जो व्यक्ति ज़बान से तो पश्चाताप करे किन्तु हृदय से शर्मिंदा न हो तो मानो उसने स्वयं का मज़ाक उड़ाया है।
वास्तव मे यह हंसी एंव खेद का स्थान है कि मनुष्य दवा और इलाज की आशा मे स्वयं को रोगी बना ले, वास्तव मे मनुष्य कितने घाटे मे है कि वह पश्चाताप की आशा मे पाप से संक्रमित हो जाए, तथा स्वयं को यह मार्ग दर्शित करता है कि पश्चाताप का दरवाज़ा सदैव खुला हुआ है, इसलिए अब पाप कर लू आनंद प्राप्त कर लू!! बाद मे पश्चाताप कर लूंगा!
जारी
[1] कनज़ुल फ़वाइद, भाग 1, पेज 330, इमाम रज़ा से हदीस का अध्याय; बिहारुल अनवार, भाग 75, पेज 356, अध्याय 26, हदीस 11