पुस्तक का नामः पश्चाताप दया का आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला अनसारीयान
हमने इसके पूर्व यह बात स्पष्ट की थी के जो इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा कि जो व्यक्ति ज़बान से तो पश्चाताप करे किन्तु हृदय से शर्मिंदा न हो तो मानो उसने स्वयं का मज़ाक उड़ाया है।
वास्तव मे यह हंसी एंव खेद का स्थान है कि मनुष्य दवा और इलाज की आशा मे स्वयं को रोगी बना ले, वास्तव मे मनुष्य कितने घाटे मे है कि वह पश्चाताप की आशा मे पाप से संक्रमित हो जाए, तथा स्वयं को यह मार्ग दर्शित करता है कि पश्चाताप का दरवाज़ा सदैव खुला हुआ है, इसलिए अब पाप कर लू आनंद प्राप्त कर लू!! बाद मे पश्चाताप कर लूंगा! इस लेख मे उन परिणामो का उल्लेख हुआ है जो पूरी शर्तो के साथ पश्चाताप करने से प्राप्त होते है।
यदि वास्तविक रूप से पश्चताप की जाए और पूरी शर्तो के साथ पश्चाताप हो जाए, तो निश्चित रूप से मनुष्य की आत्मा भी पवित्र हो जाती है और नफ़्स मे पवित्रता तथा हृदय मे सफ़ा पैदा हो जाती है, तथा मनुष्य के अंगो से पापो के प्रभाव समाप्त हो जाते है।
पश्चाताप बार बार नही होनी चाहीए क्योकि पाप अत्याचार और अंधेरे तथा पश्चाताप प्रकाश एंव रोशनी का नाम है, अंधकार और प्रकाश के अधिक आवा गमन से आत्मा के नेत्र ख़राब हो जाते है यदि कोई व्यक्ति पाप से पश्चाताप करने के पश्चात फ़िर से उसी पाप मे संलिप्त हो जाए तो पता चलता है कि पश्चाताप ही नही की गई है, (हे कुमैल शर्तो के साथ पश्चाताप नही हुई है।)
मनुष्य की इच्छा नरक के समान है जो कभी भरने वाला नही है, इसी प्रकार मनुष्य की इच्छा पाप करने से नही थकती, अर्थात उसके पापो मे कमी नही होती, जिसके कारण मानव अपने पालन हार परमेश्वर से दूर होता चला जाता है इसीलिए इस तंदूर के द्वार को पश्चाताप के माध्यम से बंद किया जाए और इस विचित्र दिखाई ना देने वाले अस्तित्व की सरकशी को वास्तिव पश्चाताप के द्वारा बांध लिया जाए।
जारी