पुस्तक का नामः पश्चाताप दया की आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला हुसैन अंसारियान
इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम कहते हैः
एक यहूदी किशोर अधिकांश रसूले खुदा सललल्लाहो अलैहे वआलेहि वसल्लम के पास आया करता था, पैगम्बर को भी उसके आने जाने पर कोई आपत्ति नही थी बल्कि कभी कभी उसको किसी कार्य के लिए भी भेज देते थे, अथवा उसके द्वारा यहूदी क़ौम को पत्र भेजते थे।
लेकिन एक बार कुछ दिनो तक वह नही आया, पैगम्बर ने उसके समबंध मे प्रश्न किया, एक व्यक्ति ने उत्तर दियाः मैने उसको बहुत गंभीर बीमारी की स्थिति मे देखा है शायद यह उसके जीवन का अंतिम दिन हो, यह सुनकर पैगम्बर अपने कुछ साथीयो के साथ उसको देखने गए, वह कुच्छ बोल नही रहा था परन्तु जिस समय पैगम्बर वहा पहुँचे तो वह आपका उत्तर देने लगा, पैगम्बर ने उसको गुहार लगाई, तो किशोर ने नेत्रो को खोला तथा कहाः लब्बैक या अबल क़ासिम! पैगम्बर ने कहाः कहोः अश्हदोअन लाएलाहा इललल्लाह, वअन्नी रसूलुल्लाह ( मै साक्षी हूँ कि उसके अलावा कोई ईश्वर नही है, और मै (अर्थात पैगम्बर) अल्लाह का रसूल हूँ।
जैसे ही उस किशोर की नज़र अपने पिता की (तिरछी निगाहो) पर पड़ी वह कुच्छ ना कह सका पैगम्बर ने उसको दूबारा शहादातैन की दावत दी, इस बार भी अपने पिता की तिरछी निगाहे देख कर शांत रहा, पैगम्बर ने तीसरी बार उसको यहूदीयत से पश्चाताप करने तथा शहादातैन को स्वीकार करने का नौता दिया, उसने एक बार फ़िर अपने पिता की ओर देखा, उस समय पैगम्बर ने कहाः यदि तू चाहता है तो शहादातैन स्वीकार कर ले वरना शांत रह, उसने अपने पिता का ध्यान किए बिना अपनी इच्छा से शहादातैन कहकर दुनिया से चलता बना पैगम्बर ने उस किशोर के पिता से कहाः इसकी लाश को हमारे हलावे कर दो, फ़िर अपने साथीयो से कहाः इसको ग़ुस्ल देकर कफ़न पहना कर मेरे पास लाओ ताकि मै इस पर नमाज़ पढ़ूँ, इसके पश्चात यहूदी के घर से निकल आए पैगम्बर कहते जा रहे थेः खुदाया तेरा शुक्र है कि आज तूने मेरे द्वारा एक किशोर को नर्क की आग से मोक्ष देदी।[1]