सलाम हो आप पर हे प्रिय रोज़ा रखने वालो कि भीषण गर्मी के दिनों में भूख व प्यास सहन करके ईश्वर के आदेश पर नत्मस्तक हैं और उससे कृपा व क्षमा की आशा लगाए हुए हैं। आशा करते हैं कि ईश्वर आपकी उपासनाओं को स्वीकार करेगा और आप इस पवित्र महीने में पहले से अधिक ईश्वर को प्रिय सदकर्मों को अंजाम देने में सफल होंगे। इस कार्यक्रम का पहला भाग पवित्र क़ुरआन की एक प्रार्थना से कर रहे हैं। सूरए इसरा की आयत क्रमांक 80 का अनुवाद हैः और (हे पैग़म्बर) कह दीजिए कि हे पालनहार मुझे जहां भी प्रविष्ट कर सच्चाई के साथ प्रविष्ट कर और जहां कहीं से निकाल सच्चाई के साथ बाहर निकाल और अपनी ओर से सहायक शक्ति प्रदान कर। यह दुआ अधिकांश उस समय पढ़ी जाती है जब कोई काम आरंभ करते हैं। इस प्रार्थना में हम ईश्वर से दुआ करते हैं कि वह कामों को अपने सहारे अंजाम देने का अवसर प्रदान करे कि हम कामों का सही ढंग से शुभांरभ व शुभअंत करें।पवित्र रमज़ान का महीना वह महीना है जब ईश्वर अपने बंदों पर कृपा व क्षमा की वर्षा पहले से अधिक करता है। पवित्र रमज़ान का महीना ईश्वर से प्रार्थना का महीना है। महापुरुषों ने कहा है कि प्रार्थनाएं कई प्रकार की होती हैं। कभी हम ज़बान से ईश्वर से प्रार्थना करते है। यह शैली बहुत आम है कि व्यक्ति अपनी इच्छा को ज़बान पर लाते हुए ईश्वर से प्रार्थना करता है ताकि उसकी इच्छा पूरी हो जाए। दूसरी प्रकार की प्रार्थना आंतरिक इच्छा पर आधारित होती है चाहे ज़बान से प्रकट न की जाए। उदाहरण स्वरूप एक प्यासा व्यक्ति जिसे यह ज्ञात है कि सब कुछ ईश्वर के हाथ में है, उसी प्यास की स्थिति में ईश्वर से पानी चाहता है। या वह व्यक्ति जो मन की गहराई से विश्व स्तर पर न्याय व सत्य की स्थापना का इच्छुक है वास्तव में मन की ज़बान से विश्व के मोक्षदाता के प्रकट होने का इच्छुक है। प्रार्थना का तीसरा रूप कर्म के साथ समन्वित होता है। जैसे किसी व्यक्ति को यह ज्ञात है कि आजीविका ईश्वर के हाथ में है और वह यह भी जानता है कि ईश्वर ने हलाल आजीविका प्राप्त करने हेतु प्रयत्न का आदेश दिया है इसलिए आजीविका के लिए प्रयत्न करता है। यह व्यक्ति वास्तव में अपने कर्म द्वारा ईश्वर से आजीविका चाहता है। किन्तु कभी ऐसा भी होता है कि कोई व्यक्ति ईश्वर से ऐसी चीज़ की इच्छा करता है जो उसके कर्म से विरोधाभास रखती है। उदाहरण स्वरूप कोई व्यक्ति अपनी ज़बान से तो यह कहे कि हे पालनहार! मुझे अपना सामिप्य प्रदान कर किन्तु उसका कर्म या उसकी मानसिक स्थिति इसके विपरीत स्थिति को दर्शाए। दूसरे शब्दों में जो कुछ ज़बान से कहे किन्तु व्यवहार में उसे प्राप्त करने के लिए कोई प्रयास न करे। या जैसे कोई व्यक्ति यह कहेः हे पालनहार! मैं तुझसे स्वास्थय चाहता हूं किन्तु व्यवहारिक रूप से ऐसे कर्म करे जो उसके स्वास्थय के लिए हानिकारक हों। इसलिए बहुत सी प्रार्थनाओं के पूरा न होने का कारण हमारी प्रार्थनाओं में निष्ठा व सत्य का अभाव होता है। अर्थात हम ईश्वर से किसी चीज़ की प्राप्ति की प्रार्थना तो करते हैं परन्तु वास्तव में हम कर्म द्वारा उसके विपरीत चीज़ के इच्छुक होते हैं। हे प्रभु! हमारी सहायता कर कि हमारा कर्म हमारी कथनी से समन्वित हो जाए और हमारी इच्छाओं के बीच विरोधाभास समाप्त हो जाए ताकि हमारी प्रार्थनाएं स्वीकार हो जाएं। पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम के उत्तराधिकारी हज़रत अली अलैहिस्सलाम की एक विशेषता यह थी कि वह ईश्वर से बहुत अधिक प्रार्थना करते थे। जिस समय इब्ने मुलजिम ने तलवार से उनके सिर पर आघात पहुंचाया तो उसके बाद से शहीद होने तक हज़रत अली ने ईश्वर से जो प्रार्थना की है उसका एक भाग कुछ इस प्रकार हैः हे प्रभु हम तुझसे उस दिन संरक्षण चाहते हैं जिस दिन न धन और न ही संतान काम आएगी मगर यह कि कोई स्वच्छ व पवित्र मन के साथ ईश्वर के पास जाए। मित्रो चर्चा का यह भाग एक दूसरे की समस्याओं के निदान में सहायता से विशेष है। इस संदर्भ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैः एक दूसरे से संबंध-विच्छेद व अनबन से बचो। क्या कभी आरी के दांतों को ध्यानपूर्वक देखा है कि किस प्रकार वे एक दूसरे से मिले हुए व समन्वित रूप में होते हैं। आरी के दांतों को इस प्रकार बनाया जाता है कि कि आरी को काटने की क्षमता प्रदान करते हैं। अब यदि ये दांत एक दूसरे से अलग होते या इस प्रकार इन्हें बनाया जाता कि एक दूसरे की विपरीत दिशा में होते तो उनसे कभी लाभ नहीं उठाया जा सकता था। हम मनुष्यों को भी सामाजिक जीवन में एक दूसरे से समन्वित होना चाहिए न कि मनमुटाव रखें। हम लोगों को शरीर के अंग की भांति एक दूसरे की सहायता की आवश्यकता होती है और दूसरे की सहायता के बिना हमारी समस्याओं का निदान नहीं होता। इस संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम कहते हैः ईमान वाले पारस्परिक मित्रता व उदारता में एक शरीर के अंगों की भांति हैं। जब शरीर के किसी अंग में पीड़ा होती है तो अन्य अंग ज्वर के साथ जागते हुए उससे सहानुभूति करते हैं। इसलिए हम मनुष्यों को भी एक दूसरे की सहायता व एक दूसरे के साथ सहानुभूति रखनी चाहिए। आत्म-संतुष्टि वह भावना है जो मनुष्य को शांति प्रदान करती है और जीवन के मामलों का सामना करने में उसकी सहायता करती है किन्तु कभी कभी यह भावना मनुष्य की प्रगति के मार्ग में बाधा बन जाती है। जिस समय व्यक्ति में यह विचार समा जाए कि वह जीवन में उचित बिन्दु पर पहुंच गया है और अब उसे प्रयास की कोई आवश्यकता नहीं है, यह संतुष्टि की भावना व्यक्ति के जीवन में एक समस्या का रूप धारण कर लेती है और उसे प्रगति से रोक देती है। यह भावना आध्यात्मिक मामलों के संबंध में और अधिक हानिकारक है। यदि कोई व्यक्ति अपने ईमान व कर्म से संतुष्ट हो जाए तो स्पष्ट है कि वह उच्च आध्यात्मिक मार्ग को तय करने में सुस्ती करेगा और अपने लिए परिपूर्णतः के मार्ग को बंद कर देगा। किन्तु यदि व्यक्ति को यह ज्ञात हो कि परिपूर्णतः तक पहुंचने के लिए उस पास उच्च क्षमता मौजूद है तो वह आध्यात्मिक उत्थान के प्रयास से हाथ नहीं खींचेगा। इसलिए ऐसा व्यक्ति अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं होता बल्कि उच्च आध्यात्मिक विकास के लिए उन्मुख होता है। इस प्रकार वह निरंतर ईश्वर से उच्च स्थान तक पहुंचने की प्रार्थना करता है और सदकर्म के लिए पहले से अधिक प्रयत्न करता है। व्यक्ति में आत्मोत्थान उसके शरीर के धीरे धीरे विकास के समान है किन्तु जिस प्रकार शारीरिक विकास के लिए उचित आहार आवश्यक है उसी प्रकार आत्मोत्थान के लिए सदकर्म व सही नियत व मंशा आवश्यक है। सदकर्म और ईश्वर की प्रसन्नता के लिए कर्म, बड़ी आध्यात्मिक पूंजी व आत्मिक ज़मानत है। सही मंशा व सही कर्म और ईश्वर की प्रसन्नता के लिए कर्म व्यक्ति में सकारात्मक ऊर्जा पैदा करता है और वह बेहतर कर्म के लिए अधिक प्रेरित होता है। इसके विपरीत बुरी मंशा व बुरे कर्म अच्छे कर्म की भावना के कमज़ोर पड़ने का कारण बनते हैं। चर्चा के अंतिम भाग में ईरान के एक महापुरुष शैख़ अबु सईद अबुल-ख़ैर के हवाले से एक कहानी का उल्लेख कर रहे हैं। एक दिन शैख़ अबु सईद अबुल-ख़ैर के पास एक व्यक्ति आया और उसने उनसे कहाः हे महापुरुष! मैं आपके पास इसलिए आया हूं कि आप मुझे सत्य के रहस्यों में से कुछ सिखाएं। शैख़ अबु सईद अबुल-ख़ैर ने उस व्यक्ति से अगले दिन आने के लिए कहा। वह व्यक्ति चला गया और फिर शैख़ अबू सईद अबुल-ख़ैर ने अपने शिष्यों से कहाः एक चूहे को एक संदूक़ में रख कर उसका मुंह ठीक से बंद कर दें। अगले दिन वह व्यक्ति आया और उसने शैख़ अबु सईद अबुल-ख़ैर से कहाः आपने कल जिस बात का वादा किया था उसे पूरा कीजिए। शैख़ अबु सईद अबुल-ख़ैर ने इस शर्त के साथ वह संदूक़ उस व्यक्ति के हवाले किया कि वह उसे खोलेगा नहीं। व्यक्ति उस संदूक़ को लेकर घर चला गया किन्तु वह घर में चैन से नहीं बैठ पाया और स्वंय से कहने लगा क्या इस संदूक़ में ईश्वर का कोई रहस्य हो सकता है? बड़ी देर तक प्रयास के बाद संदूक़ को खोलने में सफल हुआ और जैसे की उसने संदूक़ को खोला उसमे से चूहा कूद कर भाग गया। वह व्यक्ति शैख़ अबु सईद अबुल-ख़ैर के पास आया और उसने अप्रसन्न होकर उनसे कहाः हे महापुरुष! मैंने आपसे सबसे बड़े सत्य के रहस्य को जानने का अनुरोध किया था आपने मुझे चूहा पकड़ा दिया। शैख़ अबु सईद अबुल-ख़ैर ने कहाः हे व्यक्ति! मैंने तुम्हें संदूक़ में एक चूहा दिया तुम उसे नहीं रख सके तो किस प्रकार मैं तुमसे ईश्वरीय रहस्य बयान करूं।
source : irib.ir