पुस्तक का नामः पश्चाताप दया की आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला हुसैन अंसारीयान
तीसरी यात्रा मे जब याक़ूब अलैहिस्सलाम के सभी पुत्र, जनाबे युसुफ़ अलैहिस्सलाम की सेवा मे उपस्थित हुए तो उन्होने कहाः महाराज ! हमारे पूरे क्षेत्र मे आकाल फैल चुका है, हमारा परिवार कठिनाईया सहन कर जीवन व्यतीत कर रहा है, हमारी शक्ति जवाब दे चुकी है यह कुच्छ प्राचीन सिक्के हम अपने साथ लाए है, परन्तु हम जिस मात्रा मे गेहूँ खरीदना चाहते थे उसके मूल्य से बहुत कम है, तुम हमारे साथ नेकी और एहसान करो, और हमारे सिक्को के मूल्य से अधिक गेहूँ हमे दे दो, ईश्वर नेकी और एहसान करने वालो को अच्छा बदला देता है।
उनकी बाते सुनकर हज़रत युसुफ़ की हालत परिवर्तित हो गई और अपने भाईयो तथा परिवार की स्थिति देख कर बहुत अधिक व्याकुल हुए, एक ऐसी बात कही जिस से युसुफ़ के भाईयो को एक धक्का लगा, हजरत युसुफ़ ने इस प्रकार बात का आरम्भ कियाः
“क्या तुम्हे बोध है कि युसुफ़ और उसके भाईयो के साथ तुमने किस प्रकार का व्यवहार किया तुम्हारा यह व्यवहार क्या किसी अज्ञानता के कारण था ? सारे भाई यह प्रश्न सुन कर हैरानी मे पड़ गए और सोचने लगे कि यह क़िबति गोत्र से समबंध रखने वाला यह राजा युसुफ़ को किस प्रकार जानता है, तथा उसकी घटना से किस प्रकार सूचित हुआ, उसे युसुफ़ के भाईयो के बारे मे कैसे पता चला तथा युसुफ़ के साथ हुए व्यवहार को यह किस प्रकार जानता है जबकि इस घटना को केवल 10 भाईयो के अलावा कोई नही जानता था, यह किस प्रकार इस घटना से सूचित हुआ”?
जारी