ईश्वरीय धर्म इस्लाम का एक अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम व उपासना हज है। हज इस्लाम के व्यापक कार्यक्रमों का एक छोटा साभाग है। हज ऐसी उपासना है जिसमें नमाज़ पढ़ी जाती है दुआ की जाती है धन खर्च किया जाता है बहुत से आनंदों का कुछ दिनों के लिए त्याग किया जाता है, वतन से दूरी और बहुत सारी कठिनाइयों को सहन किया जाता है।
हज करने का बहुत अधिक पुण्य है। हज के पुण्य के संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के बहुत सारे कथन मौजूद हैं। जैसाकि एक रवायत में आया है कि एक अरब, व्यक्ति पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में आकर कहने लगा कि मैं हज करना चाहता था लेकिन नहीं कर पाया। मेरे पास बहुत अधिक धन है आप मुझे आदेश दीजिये कि अपने धन को इस प्रकार खर्च करूं कि हज जैसा पुण्य मुझे मिले। पैग़म्बरे इस्लाम ने उसके उत्तर में कहा मक्के के अबी क़ुबैस पर्वत को देखो। अगर इस पर्वत के बराबर तुम्हारे पास लाल सोना भी हो और उसे ईश्वर के मार्ग में खर्च कर दो तब भी तुम्हें वह पुण्य नहीं मिलेगा जो एक हज करने वाले को मिलता है। उसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने हज और उसके संस्कारों के बहुत सारे पुण्य को उस अरब के लिए बयान किया।
पवित्र कुरआन में बहुत सारी आयतें हैं जो हज और उसके संस्कारों के बारे में हैं। पवित्र कुरआन के सूरे आले इमरान की आयत नंबर ९७ में हम पढ़ते हैं कि लोगों पर ईश्वरीय कर्तव्य है कि जिस किसी में भी उस घर तक पहुंचने की क्षमता हो वह इस घर का हज करे और जो कोई इन्कार करे तो निःसन्देह, ईश्वर पूरे संसार से आवश्यकतामुक्त है”
इस आयत से यह समझ में आता है कि हज उन लोगों के लिए अनिवार्य है जो इसकी क्षमता रखते हैं और जो व्यक्ति क्षमता होने के बावजूद इसे अंजाम नहीं देता उसे कुफ्र अर्थात इंकार करने वालों की भांति बताया गया है। इस प्रकार के शब्द का प्रयोग केवल इसी आयत में आया है और हज को अंजाम न देने वाले को नास्तिक की भांति बताया गया है।
इस आधार पर जब एक मुसलमान के पास हज पर जाने और अपने परिवार का खर्च मौजूद हो तो उस पर हज अनिवार्य है। पवित्र कुरआन में जब हज पर जाने वालों का उल्लेख होता है तो सबसे पहले पैदल जाने वालों का वर्णन होता है। पवित्र कुरआन के सूरे हज की २७वीं आयत में आया है” हे पैग़म्बर लोगों को हज के लिए आमंत्रित करो ताकि लोग निर्बल सवारियों पर बैठकर दूर से आयें” बहुत से अवसरों पर एसा होता है कि बहुत से लोगों के पास सवारी से मक्का जाने की क्षमता नहीं होती है। इस आधार पर वे पैदल मक्का जाते हैं किन्तु मक्का जाने की क्षमता उनके अंदर होती है इसलिए हज उन पर अनिवार्य होता है। एक रवायत में आया है कि एक व्यक्ति ने इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम से पूछा कि क्या हज अमीर और ग़रीब दोनों पर अनिवार्य है? इमाम ने उत्तर दिया कि हज हर छोटे बड़े इंसान पर अनिवार्य है और अगर हज पर जाने में किसी के सामने कोई मजबूरी है तो ईश्वर उसकी मजबूरी को स्वीकार करेगा”
पवित्र कुरआन काबे को ज़मीन पर एकेश्वरवाद का पहला घर बताता और उसके मुबारक होने पर बल देता है। पवित्र कुरआन के सूरे आले इमरान की आयत नंबर ९६ में हम पढ़ते हैं” लोगों के लिए जो सबसे पहला घर बनाया है वह मक्का में है जो विभूति और विश्ववासियों के मार्गदर्शन का स्रोत है”
पवित्र कुरआन के कुछ व्याख्याकर्ताओं के अनुसार काबा इस कारण विभूति और बरकत का स्रोत है कि उसमें आध्यात्मिक, भौतिक, राजनीतिक, व्यक्तिगत और सामाजिक आदि आयामों से बहुत अधिक विभूतियां है। जब हज के लिए जाने वाला इंसान स्वयं को लाखों व्यक्तियों के मध्य देखता है तो वह स्वयं को महासागर में एक बूंद की भांति पाता है और उसका प्रयास होता है कि वह भी महान ईश्वर का भला बंदा बन जाये। हज के आध्यात्मिक वातावरण में हाजी को चाहिये कि वह अपने दिल को ईश्वर के अतिरिक्त हर चीज़ से पवित्र कर ले और केवल उसी पर ध्यान दे। राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से जब हाजी स्वयं को दूसरे हाजियों की पंक्ति में देखता है तो वह स्वयं को अकेला नहीं पाता है और अपने भीतर शक्ति का आभास करता है तथा शत्रु पर विजय व सफलता के प्रति अधिक आशान्वित हो जाता है।
काबा महान ईश्वर की शक्ति का स्पष्ट चिन्ह है। सूरे आले इमरान की आयत नंबर ९७ में काबे को स्पष्ट निशानी के रूप में याद किया गया है। काबे का पूरे इतिहास में बाक़ी रहना महान ईश्वर की शक्ति का एक चिन्ह है जबकि इतिहास में विभिन्न शत्रुओं ने इसे ध्वस्त करने का पूरा प्रयास किया था। हज़रत इब्राहीम जैसे बड़े पैग़म्बर के काल की चीज़ों का मौजूद होना स्वयं महान ईश्वर की शक्ति का चिन्ह है जैसे हजरूल असवद और हजरे इस्माईल नामक पत्थरों का मौजूद रहना जो स्वयं कई हज़ार वर्ष पुराने हैं। पवित्र कुरआन के महान ईरानी व्याख्या कर्ता अल्लामा तबातबाई इस बारे में लिखते हैं” काबे की एक बड़ी निशानी मकामे इब्राहीम अर्थात इब्राहीम नाम का स्थल है, दूसरे उसकी सुरक्षा है और तीसरे सक्षम लोगों पर हज का अनिवार्य होना है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जिन चीज़ों का उल्लेख किया गया उनमें से हर एक में महान व सर्वसमर्थ ईश्वर की निशानियां हैं। दुनिया वालों की नज़र में मक़ामे इब्राहीम, काबे की सुरक्षा और हज संस्कार से बड़ी क्या निशानी है? वह कार्य व उपासना जिसकी पुनरावृत्ति प्रतिवर्ष लाखों हाजी करते हैं।
पवित्र कुरआन के सूरे हज की २९वीं और ३३वीं आयतों में काबे को बैते अतीक़ के नाम से याद किया गया है। अतीक़ यानी स्वतंत्र। यह आज़ाद घर है और महान ईश्वर के अतिरिक्त इसका कोई दूसरा मालिक नहीं है। हाजी पूरी स्वतंत्रता के साथ काबे की परिक्रमा करते हैं ताकि स्वतंत्रता एवं आज़ादी का पाठ सीख सकें और दूसरों के दास न बनें और अपने कार्यों व मामलों की बागडोर दूसरों के हवाले न करें। काबा वह पवित्र स्थान है जिसके चारों ओर परिक्रमा करने से हाजी शैतानी इच्छाओं व सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाते हैं” इच्छाओं का दास खरीदे हुए दास से भी तुच्छ होता है और खरीदा हुआ दास उससे प्रतिष्ठित व श्रेष्ठ होता है काबे की परिक्रमा इंसान को गलत इच्छाओं व क्रोध से मुक्ति दिलाती है”
काबे की महानता के लिए इतना ही काफी है कि महान ईश्वर ने उसे अपना घर बताया है यहां पर इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि जब ईश्वर निराकार और सर्वव्यापी है और निराकार एवं सर्वव्यापी चीज़ को किसी स्थान की ज़रूरत नहीं होती है तो उसने काबे को अपना घर क्यों कहा? उसका उत्तर यह है कि महान ईश्वर ने जिन कारणों से काबे को अपना घर कहा है उनमें से एक कारण यह है कि काबे में ईश्वर की उपासना की जाती है उसकी परिक्रमा की जाती है काबे के अंदर जान बूझकर किसी चींटी को भी मारना पाप है। जिस तरह से महान ईश्वर की महानता अकल्पनीय है उसी तरह से काबे की महानता की भी कल्पना नहीं की जा सकती। महान ईश्वर ने अपने दो दूतों हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल को उसके निर्माण का आदेश दिया ताकि वे उसकी दीवारों और स्तंभों को ऊपर उठायें और उसे पवित्र रखने का भी उन्हें आदेश दिया। काबा पवित्रता का घर है और जो काबे में हो तथा उसकी परिक्रमा कर रहा हो उसे भी पवित्र होना चाहिये। इस आधार पर हज़रत इब्राहीम अपने बेटे हज़रत इस्माईल की सहायता से महान ईश्वर की ओर से दिये गये आदेश का पालन करते हैं और काबे का निर्माण करते हैं और जो चीज़ भी अनेकेश्वाद की निशानी थी उसे मिटा दिया। पवित्र कुरआन ने काबे की सुरक्षा की भी सिफारिश की है और महान ईश्वर सूरे तौबा की १७वीं आयत में बल देता है कि काफिरों को मस्जिदों को आबाद करने का अधिकार नहीं है। क्योंकि जो महान ईश्वर के होने पर ईमान नहीं रखता वह उसकी उपासना भी नहीं करेगा। तो फिर वह किस तरह ईश्वर की उपासना के स्थान को आबाद करेगा? सूरे तौबा की १८वीं आयत में हम पढ़ते हैं” ईश्वर की मस्जिदों को केवल वही आबाद करेगा जो ईश्वर और प्रलय के दिन पर ईमान रखता होगा, नमाज़ पढ़ता होगा, ज़कात देता होगा और ईश्वर के अतिरिक्त किसी से नहीं डरता होगा, उम्मीद है कि इस प्रकार के गुट मार्गदर्शन प्राप्त करने वालों में होंगे”
इस आधार पर न केवल अनेकेश्वरवादियों और काफिरों को मस्जिदों विशेषकर काबा के निर्माण का अधिकार नहीं है बल्कि उन मुसलमानों को भी इस कार्य की अनुमति नहीं है जिनका ईमान कमज़ोर हो और वे शत्रुओं से डरते हों। अलबत्ता यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि मस्जिद के निर्माण और उसके पुनरनिर्माण में अंतर है और जो आयत उसके निर्माण के बारे में आई है उसकी व्याख्या में आया है कि काबे को आबाद करना उसके निर्माण से हटकर है और उसके आबाद करने में वह चीज़ें भी शामिल हैं जो सुविधाएं व सेवाएं काबे का दर्शन करने वालों के लिए उपलब्ध कराई जाती हैं। जो चीज़ें मुसलमानों को एकत्रित होकर हज करने के लिए उपलब्ध कराई जाती हैं ताकि मुसलमान आसानी से हज कर सकें, नमाज़ पढ़ सकें और दुआ आदि कर सकें सब काबे को आबाद करने की पंक्ति में आती हैं। स्पष्ट है कि इस प्रकार की व्यवस्था को वर्तमान समय में प्राथमिकता प्राप्त है। इस प्रकार से कि मस्जिदुल हराम यानी काबे और दूसरी मस्जिदों को शत्रुओं के मुकाबले में लोगों की जागरुकता का केन्द्र होना चाहिये।