आज तेरह रजब है। सलाम हो उस जन्म लेने वाले पर कि जिसके लिए ईश्वर ने अपने घर को जन्म स्थली बनाया और अपने सर्वश्रेष्ठ दूत पैग़म्बरे इस्लाम को उसका सरपरस्त व प्रशिक्षक बनाया ताकि उसका वुजूद मानवता के लिए आदर्श बन सके और उसके अस्तित्व से ईश्वरीय कृपा के द्वार बंदों के लिए खुल सकें। जिस समय पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने चचेरे भाई हज़रत अली के शुभ जन्म का समाचार सुना तो फ़रमाया, " ईश्वर इस जन्म लेने वाले के अस्तित्व की बर्कत से अपने बंदो पर कृपा के द्वार खोलेगा।"
ईरान के प्रसिद्ध बुद्धिजीवी शहीद मुर्तज़ा मुतह्हरी कहते हैं, यदि हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपना आदर्श और पथप्रदर्शनक समझें तो हमने एक संपूर्ण मनुष्य, एक संतुलित व्यवहार के मनुष्य और एक ऐसे इन्सान को अपना मार्गदर्शक बनाया है जिसके अस्तित्व में सभी मानवीय मूल्य सुव्यवस्थित रूप से विकसित हुए हैं।
एक ऐसा विषय जिस पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी ख़िलाफ़त की अल्पावधि के दौरान दबल दिया था वह पूरी मानव जाति के अधिकारों का सम्मान करना था। आज के कार्यक्रम में इसी दृष्टि से चर्चा करेंगे।
आज अनगिनत युद्धों, लड़ाइयों तथा बहुत रक्तपात के बाद विश्व इस निष्कर्श पर पहुंचा है कि मनुष्य के लिए कुछ अधिकार निर्धारित किए जाएं ताकि उसका जीवन और उसकी प्रतिष्ठा सुरक्षित रहे। इन अधिकारों का विश्व मानवाधिकार घोषणापत्र में उल्लेख किया गया है किन्तु यह घोषणापत्र अपनी त्रुटियों तथा मानव बुद्धि के ग़लती करने की संभावना के कारण संपूर्ण नहीं है और इसे सही ढंग से लागू नहीं किया जा सकता।
दूसरी ओर यह बात भी स्पष्ट है कि सृष्टि का रचयिता मनुष्य के अस्तित्व में छिपे रहस्यों को स्वयं मनुष्य से बेहतर जानता है, मनुष्य की ज़रूरतों और क्षमताओं को पहचानता है। वह जानता है कि मनुष्य के जीवन और उसकी प्रतिष्ठा को किस तरह बेहतर ढंग से सुरक्षित रखा जा सकता है। ईश्वर ने मनुष्य के मूल अधिकारों को उसके संपूर्ण रूप में अपने संदेश वही के द्वारा पैग़म्बरे इस्लाम पर उतारा जिसे पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजन, लोगों को बताते थे किन्तु इस बीच हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त और उनकी प्रशासनिक शैली किसी भी समय की तुलना में इस समय इस्लामी मानवाधिकार का व्यवहारिक आदर्श बन सकती है क्योंकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त के काल में इस्लाम के विश्व के बड़े भूभाग पर फैले होने के कारण विभिन्न जाति, भाषा, रंग व धर्म के अनुयायी उनके अधीन थे। इस प्रकार हज़रत अली अलैहिस्सलाम की व्यवहारिक शैली ने इस्लामी मानवाधिकार के घोषणापत्र का सजीव चित्रण पेश किया।
इस्लामी मानवाधिकार की नज़र से मनुष्य की प्रतिष्ठा की रक्षा दो सिद्धान्तों पर ध्यान दिए बिना संभव नहीं है। एक मनुष्य के अस्तित्व का अमर होना और दूसरे ईश्वर को प्राप्त करने की मनुष्य में इच्छा। मनुष्य की प्रवृत्ति में ईश्वर को प्राप्ति की इच्छा छिपी हुयी है और ईश्वर भी अपने बंदे पर ध्यान देता है और उस पर अपनी कृपा की वर्षा करता है। इस प्रकार इस्लाम की नज़र में मनुष्य का अस्तित्व उद्देश्यहीन नहीं है बल्कि वह ईश्वर तक पहुंचने के लिए लालायित है। तो इस प्रकार अधिकार से संबंधित हर बात को मनुष्य के मन से समन्वित होना चाहिए। जबकि हम यह देखते हैं कि पश्चिम का मानवाधिकार मनुष्य को ईश्वर सहित हर चीज़ से अलग रखकर केवल मनुष्य को ही ध्रुव क़रार देता है किन्तु इस्लामी दृष्टिकोण में ईश्वर ध्रुव है।
इस्लामी मानवाधिकार का आधार यह है कि मनुष्य के अस्तित्व का कभी विनाश नहीं होता। हज़रत अली अलैहिस्सलाम इमाम हसन अलैहिस्सलाम के नाम अपने वसीयत पत्र में कहते हैं, " जान लो कि तुम इस दुनिया के लिए नहीं बल्कि परलोक के लिए पैदा किए गए हो। जिस जगह पड़ाव डाला है वहां से बोरिया बिस्तरा समेटना होगा। जिस घर में हो वहां कुछ दिन से ज़्यादा नहीं ठहरोगे। जिस मार्ग पर हो उसका अंत परलोक है तो अपने ठिकाने को बेहतर बनाने की कोशिश करो और अपने परलोक को इस लोक के बदले में मत बेचो।"
पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों में दुनिया के नश्वर होने और परलोक में जीवन के अमर होने का उल्लेख किया गया है और इन्सान को सचेत किया गया है कि इस संसार में उसका व्यवहार परलोक के सौभाग्य या दुर्भाग्य का आधार बनेगा। इस आधार पर जब हम मानवाधिकार की बात करें तो इस अधिकार को ऐसा होना चाहिए कि इससे इस दुनिया में मनुष्य की प्रतिष्ठा की रक्षा हो और परलोक का अमर सौभाग्य भी सुनिश्चित हो और यह ईश्वर के आज्ञापालन और उसको व्यवहारिक बनाए बिना संभव नहीं है। जो मानवाधिकार इन दिनों राजनैतिक हल्क़ों में चर्चा का विषय बने हुए हैं उनमें ये विशेषताएं नहीं हैं बल्कि ये अधिकार वर्चस्ववादियों के हाथ का हथकंडा बने हुए हैं।
इस्लामी मानवाधिकार के सिद्धांत के उल्लेख के बाद अब इसका उदाहरण पेश है। हर मनुष्य का सबसे पहला मूल अधिकार ज़िन्दा रहने का अधिकार है जिसका सभी व्यक्तियों व सरकारों को पालन करना चाहिए। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने न केवल यह कि अपने कथन और व्यवहार में इस अधिकार को अहमियत दी है बल्कि ऐसे लोगों का प्रिशक्षण करते हैं जो इन अधिकारों का सम्मान करते हैं। जीवन जीने के अधिकार की अहमियत हज़रत अली अलैहिस्सलाम की नज़र में इतनी ज़्यादा थी कि जब उन्होंने मालिके अश्तर को मिस्र का गवर्नर बनाकर भेजा तो उनके साथ अपने प्रशासनिक आदेश में इस अधिकार के महत्व पर बल देते हुए कहा था, " नाहक़ ख़ून बहाने से बचो क्योंकि नाहक़ ख़ून बहाने से जितना व्यक्ति का अंजाम बुरा होता है, उससे अनुकंपाएं छिन जाती हैं और उसकी आयु कम होती है, उतना किसी और बुरायी से नहीं होता।"
हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस वाक्य में एक महत्वपूर्ण विषय की ओर इशारा कर रहे हैं और वह यह है कि शासक को यह अधिकार नहीं है कि व अपनी हुकूमत मज़बूत करने के लिए लोगों का ख़ून बहाए। यह वह त्रासदी है जिससे मानाव इतिहास भरा पड़ा है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम कह रहे हैं कि अपनी हुकूमत को नाहक़ ख़ून बहा कर मज़बूत मत करो क्योंकि ऐसा करने से सत्ता कमज़ोर होती है और वह दूसरे के हाथ में चली जाती है।
शुद्ध इस्लाम में ईश्वर पर आस्था रखने वाले मोमिन का सम्मान किया गया है मगर ग़ैर मोमिन को भी इन्सान होने के नाते जीवन जीने का अधिकार दिया गया है।
स्वतंत्रता एक और अधिकार है जिसे हर इन्सान को मिलना चाहिए किन्तु कभी कभी इस अधिकार की ग़लत व्याख्या की जाती है जिसके कारण इस अधिकार से मानवीय प्रतिष्ठा बढ़ने के बजाए और गिर जाती है। बुद्धिजीवियों की नज़र में आज़ादी का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य ख़ुद को हर प्रकार की सीमित्ता से मुक्त समझे और जानवरों की तरह हर क्षण इच्छाओं में पड़ा रहे या दूसरों को सताने या प्रकृति को हानि पहुंचानपे या चोरी करने के लिए ख़ुद को आज़ाद समझे। इससे समझ में आता है कि आज़ादी निरंकुश नहीं होती बल्कि इसके साथ कुछ शर्तें व सीमित्ताएं हैं। इस्लाम में इन सीमित्ताओं को ईश्वर ने निर्धारित किया है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने जनता को इतनी स्वतंत्रता दी थी कि जिस समय वह मस्जिद में भाषण देते थे तो विरोधी उनकी कड़ी आलोचना करते और कभी कभी तो पूरी सभा का माहौल ख़राब हो जाता था।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का केवल नारा नहीं दिया बल्कि अपने व्यवहवार से स्वतंत्रता से लाभ उठाने का सामाजिक आधार मुहैया कराया। यहां तक कि वह लोगों को विनम्रतापूर्वक दृष्टिकोण बयान करने और शासकों व अधिकारियों को आलोचनाओं को खुले मन से स्वीकार करने के लिए प्रेरित करते थे और स्वयं भी उन्होंने ऐसा करके दिखाया। इसके अतिरिक्त हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने स्वतंत्रता को व्यवहारिक बनाने के साथ साथ इसके दुरुपयोग को रोका ताकि स्वतंत्रता की सीमा निर्धारित रहे।
मानवाधिकार का एक और सिद्धांत लोगों के बीच समानता व बराबरी का सिद्धांत है। इस्लाम में इस सिद्धांत को उस समय स्वीकार्य माना गया है जब न्याय जैसे इससे अधिक महत्वपूर्ण सिद्धांत का उल्लंघन न हो रहा हो क्योंकि न्याय का है हर व्यक्ति को उसके योग्य अधिकार देना है जबकि समानता के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि वह सदैव न्यायपूर्ण हो।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम के आचरण और उनकी ख़िलाफ़त के काल में मिलता है कि उन्होंने कठिन परिस्थितियों के बावजूद उस समय तक समानता के सिद्धांत का पालन किया जब तक इससे न्याय की उपेक्षा नहीं होती थी और लोगों के एक समान होने के सिद्धांत की रक्षा करते रहे यहां कि न्याय व समानता की स्थापना के लिए अपनी जान न्योछावर कर दी।
यदि हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ओर से मालिक अश्तर को दिए गए प्रशासनिक आदेश पर ध्यान दें तो हम यह पाएंगे कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम राष्ट्रीयता, जाति, नस्ल, रंग, लिंग इत्यादि की दृष्टि से लोगों के बीच किसी अंतर को नहीं मानते थे और उन्होंने सबके लिए बराबर का अधिकार निर्धारित किया जिसमें राष्ट्रीय कोष के बटवारे, क़ानून को लागू करने तथा न्याय करने जैसे क्षेत्र शामिल हैं। जैसे जब कुछ लोग पैग़म्बरे इस्लाम के साथ रहने के कारण राष्ट्रीय कोष से अधिक भाग की मांग करते थे तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ऐसे लोगों से कहते थे, जो कोई पैग़म्बरे इस्लाम के साथ मक्का से मदीना पलायन करने वालों और मदीना में पैग़म्बरे इस्लाम की मदद करने वालों में से ख़ुद को श्रेष्ठ समझता है, यह जान ले कि उसका बदला उसे प्रलय में ईश्वर देगा। तुम सब ईश्वर के बन्दे हो और यह माल ईश्वर का माल है जिसे तुम्हारे बीच बराबर बाटुंगा। किसी को किसी पर श्रेष्ठता नहीं है चाहे वह अरब हो या ग़ैर अरब। सदाचारियों को प्रलय में बदला मिलेगा और सदाचारियों के लिए जो ईश्वर के पास है वह बेहतर चीज़ है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम के जीवन की एक घटना ऐसी है जो दर्शाती है कि वह अल्पसंख्यकों के साथ भी न्याय व समानता के साथ व्यवहार करते थे। एक यहूदी हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कवच चोरी कर उसे बाज़ार में बेचने लाया था। जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कवच को देखा तो पहचान गए और उस यहूदी से कवच मांगा तो उसने देने से इंकार किया। इस कारण यह मामला अदालत में पहुंचा। हज़रत अली उस समय पूरे मुस्लिम जगत के ख़लीफ़ा थे, किन्तु एक आम आदमी की भांति अदालत में उपस्थित हुए और इससे भी ज़्यादा हैरत की बात यह है कि चूंकि उनके पास अपने दावे के पक्ष में कोई गवाह नहीं था, जज ने यहूदी के पक्ष में फ़ैसला सुनाया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने भी अदालत के इस फ़ैसले का सम्मान किया। जब यहूदी ने देखा कि मुसलमानों का ख़लीफ़ा होते हुए भी हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने लिए विशेषाधिकार नहीं मानते और इस सीमा तक क़ानून का सम्मान करते हैं तो वह मुसलमान हो गया।
इस्लामी मानवाधिकार जिस पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपनी ज़िन्दगी के अंतिम क्षण तक कटिबद्ध रहे इतना व्यापक व प्रभावी है।
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