अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम की बिला फ़स्ल इमामत (अर्थात इस्लामी ईशदूत के बाद, बिना किसी फ़ासले के आपको प्रथम श्रेणी में उनका उत्तराधिकारी स्वीकार करना) का विश्वास रखना इसलिए कि आप (अ.) दूसरे सहाबा अर्थात रसूले इस्लाम के सखागणों से सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ थे और रसूले इस्लाम ने आपको अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था इसी के साथ इस बात का भी विश्वास रखना कि इमामत का क्रम आपकी संतानों में केवल हज़रत फ़ातिमा ज़हरा के वंश में जारी रहेगा और किसी और को इमामत का अधिकार नहीं है ।
शिया शब्द परिभाषा में विभिन्न अर्थों में उपयोग होता है :
1.अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम की बिला फ़स्ल इमामत (अर्थात इस्लामी ईशदूत के बाद, बिना किसी फ़ासले के आपको प्रथम श्रेणी में उनका उत्तराधिकारी स्वीकार करना) का विश्वास रखना इसलिए कि आप (अ.) दूसरे सहाबा अर्थात रसूले इस्लाम के सखागणों से सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ थे और रसूले इस्लाम ने आपको अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था इसी के साथ इस बात का भी विश्वास रखना कि इमामत का क्रम आपकी संतानों में केवल हज़रत फ़ातिमा ज़हरा के वंश में जारी रहेगा और किसी और को इमामत का अधिकार नहीं है ।
शेख़ मुफ़ीद अलैहिर्रहमा इस बारे में कहते हैः शिया शब्द कभी अलिफ़ व लाम द्वारा मारेफ़ा अर्थात व्यक्तिवाचक बना कर (अश-शिया) बोला जाता है और कभी अलिफ़ व लाम के बिना उपयोग होता है। जब अलिफ़ व लाम के बिना बतौर नकरा अर्थात जातिवाचक उपयोग हो तो उसके अर्थ में व्यापकता होती है, उदाहरण स्वरूप कहा जाता है बनी उमय्या का शिया (شيعة بنى اميّة,शियतो बनी उमय्या) या बनी अब्बास का शिया (شيعة بنى العباس ,शियतो बनी अब्बास) या अमुक व्यक्ति का शिया। परन्तु जब अलिफ़ लाम के द्वारा मारेफ़ा अर्थात व्यक्तिवाचक बना कर (शिया) बोला जाता है (الشيعة अश-शिया) तो उसके विशेष अर्थ मुराद होते हैं अर्थात वह महोदय जो अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.) को वली-ए-अम्र मुस्लेमीन अर्थात मुसलमानों के अधिकारों पर स्वामित्त रखने वाला स्वीकार करते हुए आपका आज्ञापालन करते हैं और पैग़म्बरे अकरम के बाद आपकी बिला फ़स्ल इमामत के स्वीकारकर्ता हैं और पिछले खुल्फ़ा की इमामत को स्वीकार नहीं करते। इसलिए यद्धपि शब्दकोष में शिया शब्द ”आज्ञापालन“ या किसी व्यक्ति के अनुगामी के अर्थ में उपयोग होता है परन्तु परिभाषा में इस शब्द के उल्लिखित विशेष अर्थ हैं जैसा कि शब्दकोष के अनुसार इस्लाम शब्द, यहूद व नसारा को भी सम्मिलित है इसलिए कि वह भी हज़रत मूसा व हज़रत ईसा के धर्मशास्त्र को स्वीकार करते थे परन्तु परिभाषा में यह शब्द केवल इस्लामी ईशदूत के अनुगामियों के लिए प्रयोग होता है। ( अवाएलुल मक़ालात पृष्ठ 35 व 36)
अब्दुल करीम शहरिस्तानी भी शिया शब्द की तारीफ़ में लिखते हैं शिया वह लोग हैं जो केवल अली (अ.) का अनुसरण करते हैं (ना कि दूसरे सहाबा अर्थात रसूले इस्लाम के सखागण का) और रसूले अकरम के आदेश व वसीयत अर्थात उत्तरपत्र के आधार पर आपकी इमामत व ख़िलाफ़त के विश्वासी हैं, आदेश चाहे जली अर्थात बिल्कुल स्पष्ट हो या ख़फ़ी अर्थात मनन चिंतन व समीक्षा की आवश्यकता हो। और इस बात के भी विश्वासी हैं कि इमामत आपकी (अ.) संतानों से बाहर नहीं जा सकती। अगर आपकी (अ.) संतानों के अतिरिक्त कोई भी इमाम बन जाए तो उसकी इमामत अत्याचारी व क्रूरतापूर्ण होगी। (मेलल व नहेल भाग 1 पृष्ठ 146)
सय्यद शरीफ़ जुरजानी भी लिखते हैः शिया वह लोग हैं जो अली (अ.) का अनुसरण करते हैं और आपको रसूले इस्लाम के बाद बिला फ़स्ल इमाम मानते हैं और विश्वासी हैं कि उनकी संतानों के अतिरिक्त कोई और इमाम नहीं हो सकता। (अत-तारीफ़ात पृष्ठ 93)
इब्ने ख़ुल्दून का भी कहना हैः पूर्ववर्ती व वर्तमान धर्मविधिज्ञों तथा धर्मशास्त्रियों की परिभाषा में शिया, अली और उनकी संतान के अनुगामियों को कहा जाता है। शियों के विश्वास के अनुसार इमामत का सम्बंध धर्म के मूल तत्वों से है और हज़रत अली को पैग़म्बर ने अपने बाद इमामत के लिए नियुक्त किया है। (मुक़द्दमा-ए-इब्ने ख़ुलदून पृष्ठ 196)
अबुल हसन अश्अरी शिया की परिभाषा के संदर्भ में कहते हैः उन्हें इस लिए शिया कहा जाता है कि वह लोग अली का अनुसरण करते हैं और उन्हें दूसरे समस्त अस्हाबे पैग़म्बर पर वरीयता देते हैं। (मक़ालातुल इस्लामीयीन भाग 1 पृष्ठ)
हज़रत अली (अ.) को दूसरे अस्हाब पर वरीयता देने का मतलब आपकी बिला फ़स्ल इमामत का स्वीकारकर्ता होना है।
उल्लिखित अनुप्रयोगों से साफ़ स्पष्ट है कि हज़रत अली (अ.) की बिला फ़स्ल इमामत व ख़िलाफ़त और आपकी इमामत का ईश्वर की ओर प्रदान किया जाना तथा पैग़म्बर द्वारा आपकी नियुक्ति और हज़रत फ़ातिमा के वंश से आपकी संतानों में इमामत के जारी रहने के विश्वास ही को, शिया समुदाय के मूलतत्व और आधार समझा जाता है।
इन परिभाषाओं का प्रसार कुछ इस प्रकार है कि शब्दकोष के विशेषज्ञों ने भी शिया शब्द के शाब्दिक अर्थ बयान करने के बाद यह लिखा है कि इस शब्द का प्रमुख उपयोग उन लोगों से विशिष्ठ है जो अली व अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की इमामत व विलायत के स्वीकारकर्ता हैं। इस बारे में क़ामूस में उल्लिखित वाक्यांश यह हैः
و قد غلب هذا الاسم على كل من يتولّى عليا و اهل بيته حتّى صار اسما خاصّا لهم
(अल-क़ामूसुल मुहीत भाग 3 पृष्ठ 47)
इब्ने असीर भी लिखते हैः
و قد غلب هذا الاسم على كل من يزعم انه يتولّى عليا و اهل بيته حتّى صار لهم اسما خاصّا، فاذا قيل فلان شيعة عرف انه منهم
(अन-निहायः भाग 2 पृष्ठ 519)
यह बात शब्दकोष की दूसरे किताबों में भी तथैव इसी मूलपाठ या समान मूलपाठ के साथ मौजूद है। (लिसानुल अरब भाग 1 पृष्ठ 55, ताजुल-उरूस भाग 5 पृष्ठ 5, अक़रबुल मवारिद भाग 1 पृष्ठ 627)
अमीनुल इस्लाम तबरसी शिया के शाब्दिक अर्थ यूँ बयान करते हैं : शिया उस गुट को कहा जाता है जो अपने सरदार का अनुसरण करे। उसके बाद कहते हैः
و صار بالعرف عبارة عن شيعة على بن ابى طالب عليه السلام الذين كانوا معه على اعدائه و بعده، مع من قام مقامه من ابنائه
(मजमउल बयान भाग 4 पृष्ठ 448)
लोक परिचय में शिया हज़रत अली इब्ने अबी तालिब के अनुगामियों को कहा जाता है अर्थात जो लोग अली के शत्रुओं के मुक़ाबिले में आपके साथ थे और आपके बाद आपके उत्तराधिकारी संतानों के साथ रहे।
2. दूसरी परिभाषा के अनुसार शिया उन्हें कहा जाता है जो समस्त सहाबा अर्थात रसूले इस्लाम के सखागणों और पिछले तीनों खुलफ़ा पर हज़रत अली (अ.) की श्रेष्ठता के स्वीकारकर्ता हैं चाहे आपकी बिला फ़स्ल इमामत को स्वीकार न करते हों । मौलिक रूप से यह लोग इमामत के बारे में उत्तरपत्र और नस के स्वीकारकर्ता नहीं हैं। कभी कभी उन लोगों को भी शिया कहा जाता है जो हज़रत अली (अ.) को उस्मान से सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ मानते हैं जैसा कि क़ाज़ी अब्दुल जब्बार कहते हैः वासिल बिन अता उस्मान के मुक़ाबिले में अली (अ.) की श्रेष्ठता के स्वीकारकर्ता थे इसी लिए उनको शिया कहा जाता है इसलिए कि उस युग में शिया उसे कहा जाता था जो अली (अ.) को उस्मान से सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ मानता हो। ( अल-मुग़नी फ़ी अबवाबित्तौहीद वल्अद्ल, वल्इमामः भाग 2 पृष्ठ 114)
परिणाम यह निकला कि इस परिभाषा के अनुसार शिया समुदाय का आधार अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.) की श्रेष्ठता के विश्वास पर है चाहे श्रेष्ठता समस्त सहाबा अर्थात रसूले इस्लाम के समस्त सखागणों व खुल्फ़ा पर हो या केवल उस्मान पर। समस्त शिया समुदाय और मोतज़ेला का बहुमत हज़रत अली (अ.) को रसूले इस्लाम के बाद सब से सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ व उच्चतर मानता है।
अहले हदीस का एक गुट भी उस्मान के मुक़ाबिले में हज़रत अली (अ.) की श्रेष्ठता को स्वीकार करता रहा है।
(शाफ़ियों के इमाम इब्ने इदरीस शाफ़ेई की कुछ पंक्तियों से आभास होता है कि वह भी हज़रत अली (अ.) की श्रेष्ठता के स्वीकारकर्ता थे। उनकी एक पंक्ति है।
اذا نحن فضّلنا عليّا فإنّنا روافض بالتفضيل عند ذوى الجهل
(दीवाने इमामे शाफ़ेई पृष्ठ 55))
अधिकांश समय इल्मे रेजाल और उल्लेखकर्ताओं की जीवनी से सम्बंधित किताबों में ऐसे लोगों की ओर तशय्यो की निस्बत दी गई है इस आधार पर जो लोग तशय्यो को उल्लेखकर्ता के अविश्वस्त होने का कारण मानते हैं उन्हों ने ऐसे लोगों की निंदा की है।
(मीज़ानुल एतेदाल में ज़हबी ने कुछ अहले सुन्नत उल्लेखकर्ताओं की ओर तशय्यो की निस्बत दी है अतःबुख़ारी के मशाइख़ में उबैदुल्लाह बिन मूसा के बारे में कहते हैः
ثقة فى نفسه، لكنّه شيعي منحرف
अला इब्ने अब्बास के बारे में कहते हैः شيعي غال मुहम्मद बिन अहमद बिन हम्द उनके बारे में कहते हैः
كان يتشيّع
प्रसिद्ध इतिहासकार व भाष्यकार मुहम्मद बिन जुरैर तबरी के बारे में कहते हैः
ثقة صادق فيه تشيّع يسير و موالاة لا تضرّ )
इसी परिभाषा से यह भी ज्ञात हो जाता है कि ज़ैदिया समुदाय का एक गुट जो अमीरुल मोमिनीन (अ.) को दूसरे सहाबा अर्थात रसूले इस्लाम के सखागणों से सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ स्वीकार करता है मगर आपकी बिला फ़स्ल ख़िलाफ़त का स्वीकारकर्ता नहीं है फिर भी उसको शिया कहा जाता है । इसलिए कि यह गुट इमामत के अध्याय में नस का स्वीकारकर्ता नहीं है बल्कि लोगों के चयन को इमाम की नियुक्ति का कारण समझता है परन्तु चूँकि हज़रत अली (अ.) की श्रेष्ठता का विश्वासी है अतः उसे शिया कहा जाता है।
अल्लामा तबातबाई ने इस गुट को शिया कहे जाने के दूसरे कारण बयान किए हैं। अल्लामा तबातबाई फ़रमाते हैं कि चूँकि इस गुट ने बनी उमय्या और बनी अब्बास दोनों की ख़िलाफ़त को स्वीकार नहीं किया और इमामत को हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स. अ.) की संतान का अधिकार समझा, इसलिए उन्हें शिया कहा जाता है। (शिया दर इस्लाम पृष्ठ 20)
3. एक दूसरी परिभाषा के अनुसार पैग़म्बर (स.) के अहलेबैत अर्थात परिवार से प्यार व स्नेह अभिव्यक्ति करने वालों को भी शिया कहा जाता है। यद्धपि अहले अहलेबैत (अ.) से प्यार व स्नेह, समस्त मुसलमानों के निकट अनिवार्य है और सभी इस मुद्दे पर सहमत हैं और नासिबीयों के अतिरिक्त कोई भी रसूले इस्लाम के परिवार से शत्रुता नहीं रखता है इसलिए कि इस बारे में क़ुरआन मजीद ने सपष्ट शब्दों के साथ उनकी मुहब्बत को अनिवार्य किया है और पैग़म्बरे इस्लाम में भी स्पष्ट शब्दों में उसके महत्व को बयान किया है परन्तु इन बातों के बावजूद जो लोग रसूले इस्लाम के परिवार से प्यार व स्नेह का अभिव्यक्ति करते थे या उसका प्रचार करते थे उन्हें शिया या राफ़िज़ी कहा जाता था ऐसे नामों या उपाधियों का उस युग में अधिक उपयोग किया गया जब अहले अहलेबैत (अ.) के विरोधी, कट्टर व पक्षपाती शासन मुसलमानों की गरदनों पर सवार थे। इस कार्यवाही से उनका उद्देश्य लोगों को अहले अहलेबैत (अ.) की शिक्षाओं से दूर रखना था कि अहले अहलेबैत (अ.) के निकट अत्याचार का अंत अत्यंत महत्वपूर्ण और हर चीज़ पर प्राथमिकता रखता है। इमाम शाफ़ेई की पंक्तियां भी कुछ यही दर्शाती हैं।
اذا في مجلس نذكر عليّا يقال و سبطيه و فاطمة الزكية
تجاوزوا يا قوم هذا فهذا من حديث الرافضية
برئت الى المهيمن من اناس يرون الرفض حبّ الفاطمية
(दीवानुल इमामिश्शाफ़ेई पृष्ठ 56)
दूसरे स्थान पर इमाम शाफ़ेई कहते हैं :
ان كان رفضا حبّ آل محمد فليشهد الثقلان أنّي رافضي
(दीवानुल इमामिश्शाफ़ेई पृष्ठ 55)
source : wilayat.in