जिस दिन इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम शहीद होने वाले थे उस दिन उन्होंने सुबह की नमाज़ नए वस्त्र पहन कर पढ़ी और उसी स्थान पर बैठे रहे मानो उन्हे किसी अप्रिय घटना के होने का आभास हो गया था। उस दिन उनका चेहरा हर दिन से अधिक दमक रहा था। उनकी आंखे ईश्वर के प्रति अथाह श्रृद्धा का पता दे रही थीं कि अचानक मामून का संदेशवाहक घर के द्वार पर पहुंचा और उसने कहा कि मामून ख़लीफ़ा ने अबुल हसन को बुलाया है।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम उसके साथ चल पड़े। मामून इमाम के स्वागत के लिए निकला और इमाम को अपने विशेष स्थान की ओर ले गया और दोनों लोग आमने सामने बैठ गए किन्तु मामून की आंखें कुछ और ही कह रहीं थीं। उसकी दुस्साहस भरी दृष्टि इस बात का पता दे रही थी कि वह इस समय क्या करना चाह रहा है। मामून जानता था कि उसके समस्त हत्कण्डे, इमाम के प्रति लोगों की श्रृद्धा को न कम कर सके और न ही उसकी सरकार के लिए लाभदायक सिद्ध हुए। वह इस बात से भलिभांति अवगत था कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम, अत्याचार और आत्महित को स्वीकार नहीं करेंगे और जब तक सूर्य की भांति इमाम का अस्तित्व अपनी ज्योति बिखेरता रहेगा उस समय तक ख़लीफ़ा के रूप में लोगों के निकट उसका कोई महत्व नहीं होगा। अपने आपसे कहने लगा, सबसे अच्छा समाधान यह है कि अबल हसन को अपने मार्ग से हटा दें। मामून बिना कुछ कहे आगे बढ़ा और एक बड़े से बर्तन से उसने अंगूर का एक गुच्छा उठाया और उसमें से अंगूर का कुछ दाना खाया और फिर आगे बढ़कर उसने इमाम के माथे को चूमा और अंगूर का एक गुच्छा इमाम की ओर बढ़ाते हुए बोला हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र इनसे अच्छे अंगूर मैंने आज तक नहीं देखे। इमाम ने अपनी बोलती हुई आंखों से उत्तर दिया कि स्वर्ग का अंगूर इससे भी अच्छा है। मामून ने फिर कहा अंगूर खाइये।
इमाम ने मना कर दिया, लेकिन मामून ने अत्यधिक आग्रह करते हुए विषाक्त अंगूर इमाम को दिए। इमाम रज़ा के चेहरे पर कड़वी मुस्कुराहट की एक झलक उभरी। अचानक उनके चेहरे का रंग बदलने लगा और उनकी स्थिति बिगड़ने लगी। इमाम, गुच्छे को ज़मीन पर फेंक कर उसी पीड़ा के साथ चल पड़े। इमाम रज़ा के एक अच्छे साथी अबा सल्त ने जब इमाम को देखा तो उनके साथ हो लिए। वह इस महान हस्ती के प्रकाशमयी अस्तित्व से लाभ उठा रहे थे। वह इस बात पर प्रसन्न थे कि इस समय वह पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार की सबसे महत्वपूर्ण हस्ती के साथ चल रहे हैं। उनकी दृष्टि में इमाम, आतुर हृदय को प्रकाश तथा उन्हें जीवन प्रदान करने वाला है। उन्हें इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का वह कथन याद आ गया जिसमें इमाम ने कहा थाः इमाम धरती पर ईश्वर के अमानतदार उत्तराधिकारी हैं तथा उसके बंदों पर इमाम उसकी हुज्जत व प्रमाण होते हैं। ईश्वर के मार्ग पर चलने का निमंत्रण देने वाले और उसकी ओर से निर्धारित सीमा के रक्षक हैं। वह पापों से दूर और उनका व्यक्तिव दोष रहित है। वह ज्ञान से संपन्न तथा सहिष्णुता के लिए जाने जाते हैं। इमाम के अस्तित्व से धर्म में स्थिरता और मुसलमानों का गौरव व सम्मान है। अबा सल्त
इसी विचार में लीन थे कि अचानक उनकी दृष्टि इमाम पर पड़ी, समझ गए कि मामून ने अपना अंतिम हत्कण्डा अपनाया। आह भरी और फूट फूट कर रोने लगे लेकिन अब कुछ हो नहीं सकता था अधिक समय नही बीता कि इमाम शहीद हो गए। वह काला दिवस सफ़र महीने का अंतिम दिन वर्ष 203 हिजरी क़मरी था।
उच्च नैतिक मूल्य, व्यापक ज्ञान, ईश्वर पर अथाह व अटूट विश्वास तथा लोगों के साथ सहानुभूति वे विशेषताएं थीं जो इमाम को दूसरों से विशिष्ट करती थीं। वह आध्यात्मिक तथा उपासना सम्बन्धी मामलों पर विशेष ध्यान देते थे। मुसलमानों के मामलों की निरंतर देख रेख करते तथा लोगों की समस्याओं के निदान के लिए बहुत प्रयास करते थे। रोगियों से कुशल क्षेम पूछने तुरंत पहुंचते और बड़ी विनम्रता से आतिथ्य सत्कार करते थे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ज्ञान के अथाह सागर थे। इस्लामी जगत के दूर दूर से विद्वान व बुद्धिजीवी इमाम के पास पहुंच कर अपने ज्ञान की प्यास बुझाते थे। इमाम रज़ा ने अपनी इमामत के काल में बहुत से बुद्धिजीवियों के प्रशिक्षित किया और आज भी क़ुरआन की व्याख्या, हदीस, शिष्टाचार तथा इस्लामी चिकित्सा पद्धति पर इमाम की महत्वपूर्ण रचनाएं मौजूद हैं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम लोगों के सामने इस्लाम की मूल्यवान शिक्षा की व्याख्या करते किन्तु उनके व्यक्तिव का दूसरा आयाम उनका राजनैतिक संघर्ष था।
प्रथम हिजरी शताब्दी के दूसरे अर्ध में इस्लामी शासन ने राजशाही व्यवस्था तथा कुलीन वर्ग का रूप धारण कर लिया और अत्याचारी शासक सत्तासीन हो गए। इमामों ने जो पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों में से हैं, उसी समय से शासकों के भ्रष्टाचार के विरद्ध अपना संघर्ष आरंभ कर दिया था। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने भी अपने काल में अत्याचार से संघर्ष किया। इसके साथ ही उनके काल की परिस्थितियां कुछ सीमा तक भिन्न थीं। इमाम को एक बड़े एतिहासिक अनुभव तथा एक गुप्त राजनैतिक द्वद्वं का सामना था जिसमें सफलता या विफलता दोनों ही मुसलमानों के भविष्य के लिए निर्णायक थी। इस खींचतान में अब्बासी शासक मामून षड्यंत्र रच मैदान में आ गया। वह एक दिन इमाम रज़ा के निकट आया और उसने इमाम से कहाः हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र मैं आपके ज्ञान, नैतिक गुण और सच्चरित्रता से भलिभांति अवगत हूं और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि आप इस्लामी नेतृत्व के लिए मुझसे अधिक योग्य हैं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ईश्वर की अराधना मेरे लिए गौरव की बात है, ईश्वर के प्रति भय द्वारा ईश्वरीय अनुकंपाओं तथा मोक्ष की आशा करता हूं तथा संसार में विनम्रता द्वारा ईश्वर के निकट उच्च स्थान की प्राप्ति चाहता हूं।
मामून ने कहाः मैंने सत्ता को छोड़ने और इसे आपके हवाले करने का निर्णय किया है।
इमाम रज़ा ने उसके उत्तर में कहाः अगर इस पर तेरा अधिकार है तो वह वस्त्र जिसे ईश्वर ने तुझे पहनाया है उसे उतार कर, तू दूसरे के हवाले करे यह तेरे लिए उचित नहीं है। लेकिन अगर यह ख़िलाफ़त अर्थात इस्लामी सरकार की बागडोर संभालना तेरा अधिकार नहीं है तो तुझे उस चीज़ के बारे में निर्णय करने का अधिकार नहीं है जिससे तेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। तू बेहतर जानता है कि कौन अधिक योग्य है। इमाम का यह दो टूक जवाब मामून के लिए कठोर था किन्तु उसने अपने क्रोध को छिपाने का प्रयास करते हुए कहाः तो फिर हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र आपको उत्तराधिकारी अवश्य बनना पड़ेगा।
इमाम रज़ा ने उत्तर दियाः मैं इसे स्वेच्छा से स्वीकार नहीं करूंगा।
मामून ने कहाः हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र आप उत्तराधिकारी बनने से इसलिए बचना चाह रहे हैं ताकि लोग आपके बारे में यह कहें कि आप को संसारिक मोह नहीं है।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने उत्तर दियाः मैं जानता हूं कि तुम्हारे यह कहने के पीछे यह उद्देश्य है कि लोग यह कहने लगें कि अलि बिन मूसर्रिज़ा संसारिक मोह माया से बचे नहीं और ख़िलाफ़त की लालच में उन्होंने अत्तराधिकारी बनना स्वीकार कर लिया।
अंततः मामून ने इमाम रज़ा को उत्तराधिकारी बनने के लिए विवश कर दिया किन्तु इमाम ने यह शर्त रखी कि वह सरकारी मामलों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इस प्रकार इमाम रज़ा ने अपनी सूझ बूझ से लोगों को यह समझा दिया कि मामून की राजनैतिक कार्यवाहियों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है और सरकारी मामलों में उनकी कोई भूमिका नहीं है। इसके साथ ही इमाम की नई स्थिति से उनके सम्मान में और वृद्धि हो गई। इमाम रज़ा ने खुले राजनैतिक वातावरण में इतनी समझदारी से कार्य किया कि उनके उत्तराधिकार का काल शीया इतिहास के स्वर्णिम युगों का एक भाग बन गया तथा मुसलमानों की संघर्ष प्रक्रिया के लिए नया अवसर उपलब्ध हो गया। बहुत से लोग जिन्होंने केवल इमाम रज़ा का केवल नाम सुन रखा था उन्हें समाज के योग्य मार्गदर्शक के रूप में पहचानने तथा उनका सम्मान करने लगे कि जो ज्ञान, नैतिक गुणों, लोगों से सहानुभूति रखने तथा पैग़म्बर से निकट होने की दृष्टि से सबसे योग्य व श्रेष्ठ हैं।
अंततः मामून को यह ज्ञात हो गया कि जिस तीर से उसने इमाम की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने का लक्ष्य साधा था वह उसी की ओर पलट आया है इसलिए उसने भी वही शैली अपनाई जो उसके पूर्वज अपना चुके थे। उसने भी अपने काल के इमाम को विष देकर शहीद कर दिया।