मुतावातिर रिवायात की बिना पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने क़ुरआन व अहलेबैत अलैहिमुस् सलाम के बारे में हमें जो हुक्म दिया हैं कि इन दोंनों के दामन से वाबस्ता रहना ताकि हिदायत पर रहो इस की बिना पर और इस बिना पर कि हम आइम्मा-ए- अहले बैत अलैहिमुस् सलाम को मासूम मानते हैं और उनके तमाम आमाल व अहादीस हमारे लिए संद व हुज्जत हैं ,इसी तरह उनकी तक़रीर भी (यानी उनके सामने कोई काम अंजाम दिया गया हो और उन्होंने उस से मना न किया हो) क़ुरआने करीम व पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की सीरत के बाद हमारे लिए फ़िक़्ह का मंबा है।
और जब भी हम इस नुक्ते पर तवज्जोह करते हैं कि बहुत सी मोतेबर रिवायतों की बिना पर आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस् सलाम ने फ़रमाया है कि हम जो कुछ बयान करते हैं सब कुछ पैग़म्बरे इस्लाम(स.)का बयान किया हुआ है जो हमारे बाप दादाओं के ज़रिये हम तक पहुँचा है। इस से यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि इनकी रिवायतें पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की रिवायतें हैं। और हम सब जानते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)से नक़्ल की गई मौरिदे ऐतेमाद व सिक़ा शख़्स की रिवायतें तमाम उलमा-ए- इस्लाम के नज़दीक क़ाबिले क़बूल हैं।
इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने जाबिर से फ़रमाया है कि “या जाबिरु इन्ना लव कुन्ना नुहद्दिसुकुम बिरायना व हुवा अना लकुन्ना मीनल हासीकीना,व लाकिन्ना नुहद्दिसु कुम बिअहादीसा नकनिज़ुहा अन रसूलि अल्लाहि (स.)” यानी ऐ जाबिर अगर हम अपनी मर्ज़ी से हवा-ए- नफ़्स के तौर पर कोई हदीस तुम से बयान करें तो हलाक होने वालों में से हो जायेंगे। लेकिन हम तुम से वह हदीसें बयान करते हैं जो हम ने पैग़म्बरे इस्लाम (सल.)से ख़ज़ाने की तरह जमा की हैं।
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की एक हदीस में मिलता है कि किसी आप से सवाल किया आपने उसको उसके सवाल का जवाब अता किया वह इमाम से अपने नज़रिये को बदलने के लिए कहने लगा और आप से बहस करने लगा तो इमाम ने उस से फ़रमाया कि इन वातों को छोड़ “मा अजबतुका फ़ीहि मिन शैइन फ़हुवा अन रसूलिल्लाहि ” यानी मैने जो जवाब तुझ को दिया है इस में बहस की गुँजाइश नही है क्योँ कि यह रसूलुल्लाह(स.)का बयान फ़रमाया हुआ है।
अहम व क़ाबिले तवज्जोह बात यह है कि हमारे पास हदीस की काफ़ी,तहज़ीब,इस्तबसार व मन ला यहज़ुरुहु अलफ़क़ीह बग़ैरह जैसी मोतबर किताबें मौजूद हैं। लेकिन इन किताबों के मोतबर होने का मतलब यह नही है कि जो रिवायतें इन में मौजूद हैं हम उन सब को क़बूल करते हैं। बल्कि इन रिवायतों को परखने के लिए हमारे पास इल्मे रिजाल की किताबें मौजूद है जिन में रावियों के तमाम हालात व सिलसिला-ए-सनद बयान किये गये हैं। हमारी नज़र में वही रिवायत क़ाबिले क़बूल है जिस की सनद में तमाम रावी क़ाबिले ऐतेमाद व सिक़ह हों। इस बिना पर अगर कोई रिवायत इन किताबों में भी हो और उसमें यह शर्तें न पाई जाती हों ते वह हमारे नज़दीक क़ाबिले क़बूल नही है।
इस के अलावा ऐसा भी मुमकिन है कि किसी रिवायत का सिलसिला-ए-सनद सही हो लेकिन हमारे बुज़ुर्ग उलमा व फ़क़ीहों ने शुरू से ही उस को नज़र अंदाज़ करते हुए उस से परहेज़ किया हो (शायद उस में कुछ और कमज़ोरियाँ देखी हों)हम ऐसी रिवायतों को “मोरज़ अन्हा ”कहते हैं और ऐसी रिवायतों का हमारे यहाँ कोई एतेबार नही है।
यहाँ से यह बात रौशन हो जाती है कि जो लोग हमारे अक़ीदों को सिर्फ़ इन किताबों में मौजूद किसी रिवायत या रिवायतों का सहारा ले कर समझने की कोशिश करते हैं,इस बात की तहक़ीक़ किये बिना कि इस रिवायत की सनद सही है या ग़लत,तो उनका यह तरीका-ए-कार ग़लत है।
दूसरे लफ़्ज़ों में इस्लाम के कुछ मशहूर फ़्रिक़ों में कुछ किताबें पाई जाती हैं जिनको सही के नाम से जाना जाता है,जिनके लिखने वालों ने इन में बयान रिवायतों के सही होने की ज़मानत ली है और दूसरे लोग भी उनको सही ही समझते हैं। लेकिन हमारे यहाँ मोतबर किताबों का मतलब यह हर गिज़ नही है,बल्कि यह वह किताबें है जिनके लिखने वाले मोरिदे एतेमाद व बरजस्ता शख़्सियत के मालिक थे,लेकिन इन में बयान की गई रिवायात का सही होना इल्मे रिजाल की किताबों में मज़कूर रावियों के हालात की तहक़ीक़ पर मुनहसिर है।
ऊपर बयान की गई बात से हमारे अक़ाअइद के बारे में उठने वाले बहुत से सवालों के जवाब ख़ुद मिल गये होगें। क्योँ कि इस तरह की ग़फ़लत के सबब हमारे अक़ाइद को तशख़ीस देने में बहुत सी ग़लतियाँ की जाती हैं।
बहर हाल क़ुरआने करीम की आयात,पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की रिवायात के बाद आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस् सलाम की अहादीस हमारी नज़र में मोतबर है इस शर्त के साथ कि इन अहादीस का इमामों से सादिर होने मोतबर तरीक़ों से साबित हो।