हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) व आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिम अस्सलाम, बुज़ुर्ग उलमा व अल्लाह की राह में शहीद होने वाले अफ़राद की क़ब्रों की ज़ियारत मुसतहब्बाते मुअक्किदा में से है।
अहले सुन्नत के उलमा की किताबों में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की क़ब्रे मुबारक की ज़ियारत से मताल्लिक़ बहुतसी रिवायतें मौजूद हैं। इसी तरह शिया उलमा की किताबों में भी इस तरह की बहुत सी रिवायतें मौजूद है।[19] अगर इन तमाम रिवायतों को जमा किया जाये तो इस मोज़ू पर एक बड़ी किताब वुजूद में आ जायेगी।
दर तूले तारीख़ आलमे इस्लाम के बुज़ुर्ग उलमा और तमाम तबक़ात के लोगों ने इस काम को अहमियत दी है। और जो लोग पैग़म्बरे इस्लाम(स.) व दिगर बुज़ुर्गों की कब्रो की ज़ियारत के लिए गये हैं उनकी ज़िन्दगी के हालात से किताबे भरी पड़ी हैं। कुल्ली तौर पर यह कहा जा सकता है कि यह मसला तमाम मुसलमानों का मोरिदे इत्तेफ़ाक़ मसला है।
यहाँ पर यह बात क़ाबिले ग़ौर है कि ज़ियारत को इबादत नही समझना चाहिए। क्योँ कि इबादत सिर्फ़ अल्लाह की ज़ात से मख़सूस है। और ज़ियारत का