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Tuesday 26th of November 2024
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ईश्वर को कहां ढूंढे?



चौथी शताब्दी हिजरी क़मरी के प्रसिद्ध परिज्ञानी अबू सईद अबुल ख़ैर से पूछा गया कि ईश्वर को कहां ढूंढे? अबू सईद ने उत्तर दियाः एसा कभी हुआ कि कहीं उसे ढूंढा हो और वह वहां न मिला हो? एक और परिज्ञानी ने कहा है कि ईश्वर को पाने से अभिप्राय यह नहीं है कि उसे ढूंढो बल्कि स्वयं को भटकने से बचाओ अर्थात आत्मबोध पैदा करो। आत्मबोध, ईश्वरवाद तक पहुंचने का मार्ग है और वास्तव में ईश्वरवाद का मार्ग आत्मबोध द्वारा तय होता है। जैसा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कहा हैः जिसने स्वयं को पहचान लिया उसने अपने पालनहार को पहचान लिया है। अर्थात जो यह यह समझ ले कि किस प्रकार वह एक तुच्छ अस्तित्व से मानवीय परिपूर्णतः तक पहुंचा है तो निःसंदेह वह अपने ईश्वर को पहचान लेगा। क्योंकि मनुष्य यह जानता है कि सर्वज्ञानी व सर्वशक्तिमान ईश्वर के सिवा कोई और उसे शुक्राणु से इस परिपूर्णतः तक पहुंचाया। तब वह स्वयं पर ध्यान देने के परिणाम स्वरूप ईश्वर को उसकी विशेषताओं के साथ पहचान लेगा।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस संदर्भ में एक और कथन हैः जिसे आत्मबोध हो जाए वह ईश्वर को पहचान लेगा और जब ईश्वर को पहचान लिया तो वह ज्ञान व परिज्ञान के सोते तक पहुंच गया। दर्शन शास्त्र व धर्मशास्त्र का मुख्य उद्देश्य मनुष्य व सृष्टि की पहचान और इन दोनों का संबंध सृष्टि के रचयिता से है। मनुष्य का अपनी निहित व जटिल विशेषताओं को पहचानना एवं उसके नैतिक गुण उसे सृष्टि के स्रोत और उसके मूल अंत से निकट करता है। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने फ़रमायाः जिसे सबसे अधिक आत्मबोध होगा उसे अपने रचयिता का सबसे अधिक ज्ञान होगा। कहते हैं कि एक परिज्ञानी ने अपने साथियों से कहाःतुम लोग कहते हो कि हे ईश्वर मुझे पहचनवा दे किन्तु मैं यह कहता हूं कि ईश्वर मुझे आत्मबोध प्रदान कर।            

मनुष्य और सृष्टि से संबंध का विषय दर्शनशास्त्र का एक महत्वपूर्ण विषय है और दूसरे शब्दों में यह मानवता का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है कि जिसकी परिधि में हर चीज़ आ जाती है। जो भी ईश्वरवाद पर शोध करता है और रचना व रचयिता के बीच संबंध का पता लगाना चाहता है या जिस व्यक्ति को आत्मबोध हो गया है और इसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी जीवन शैली को व्यक्तिगत, या सामाजिक या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समझना चाहता है उसका भी मनुष्य और सृष्टि के विषय से पाला पड़ता है। इस विषय के समाधान से बहुत से मानवीय विषयों की गुत्भी सुलझ सकती है। बहुत से विद्वानों का मानना है कि मनुष्य मनुष्य है और सृष्टि सृष्टि है। हालांकि मनुष्य और सृष्टि के बीच बहुत ही निकट व अर्थपूर्ण संबंध मौजूद है। मनुष्य एकमात्र प्राणी है जिसका सृष्टि के हर कण से अमर संबंध है। मनुष्य इस संसार का उदाहरण व नमूना है। सृष्टि की समस्त गतिविधियां और इसी प्रकार उसके सभी अंग एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस संसार की घटनाओं के बीच पूर्ण समन्वय मौजूद है। हर वस्तु का एक रूप और अर्थ या दूसरे शब्दों में बाह्य व भीतरी रूप होता है। यह संभव है कि एक वस्तु दिखने में छोटी हो किन्तु भीतरी दृष्टि से बहुत बड़ी हो और इसका विपरीत भी संभव है कि एक वस्तु दिखने में बहुत बड़ी हो किन्तु अर्थ की दृष्टि से बहुत छोटी हो। यह बात सृष्टि के संदर्भ में भी चरितार्थ होती है। सृष्टि दिखने में बहुत बड़ी व विशाल है किन्तु अर्थ में छोटी है। जबकि मनुष्य दिखने में छोटा किन्तु वास्तव में बहुत बड़ा है। इस संदर्भ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं हे मनुष्यः तू स्वयं को एक छोटा अस्तित्व समझता है जबकि तेरे अस्तित्व में बहुत बड़ा संसार लिपटा हुआ है।

वास्तव में मनुष्य मौजूद रचनाओं का एक अद्वितीय रूप है यहां तक कहा जा सकता है कि मनुष्य के अस्तित्व में पूरी सृष्टि का निशान व प्रभाव मौजूद है। जो कुछ सृष्टि में है वह मनुष्य के अस्तित्व में किसी रूप में विद्यमान है और सही अर्थ में मनुष्य अपने आप में एक छोटी दुनिया है। इसलिए यदि हम स्वयं और आस पास को ध्यान से देखें तो अपने और आस पास की चीज़ों के बीच एक प्रकार के संपर्क का आभास करेंगे। ग्यारहवीं हिजरी क़मरी के इस्लामी जगत के सबसे बड़े दार्शनिकों में से एक मुल्ला सदरा उस व्यक्ति को परिपूर्ण मानते थे जो सभी ईश्वरीय मानदंडों से समन्वित हो। उनका मानना है कि मनुष्य ही संसार है और संसार मनुष्य के अस्तित्व में समाया है।

आज हज़ारों शोधकर्ता समुद्रों की गहराई में मौजूद आश्चर्यचकित करने वाली चीज़ों, ब्रहमांड के रहस्यों और असीमित संसार की सूचना दे रहे हैं किन्तु यदि मनुष्य अपने आप पर ध्यान दे और अपने अस्तित्व की गहराई में सैर करे तो उसे भी अपने भीतर वैसी ही आश्चर्यचकित करने वाली चीज़े दिखाई देंगी और इस सैर में बहुत से साधन व तत्व उसकी सहायता करेंगे। मनुष्य के दिखने वाला अस्तित्व ही बहुत से रहस्यों का समूह है। आश्चर्यजनक ढंग से अरबों कोषिकाओं के समूह ने एक महान कारख़ाने को अस्तित्व दिया जिसमें कई सुव्यवस्थित मशीने लगी हुयी हैं। हम जो वैज्ञानिकों के शोध व अनुसंधानों के ख़ज़ानों के वारिस हैं अभी तक इस रहस्यम किताब के एक पृष्ठ को भी पूरी तरह नहीं पढ़ सके हैं और इस अद्भुत अस्तित्व के बहुत से रहस्यों को नहीं समझ सके हैं।

इन्हीं अनछुए पहलुओं में से एक छठी हिस अर्थात अतीन्द्रीय ज्ञान है जिसकी प्राप्ति में पांचों इंद्रियों में से किसी एक की भी भूमिका  नहीं होती। पशुओं में यह इंद्रीय होती है किन्तु उसका स्तर कम होता है। जैसे कबूतर या अबाबील का दिशा का प्राप्त करना कई किलोमीटर दूर से मधुमक्खी का फूल की महक को सूंघ लेना या बहुत से पशुओं का भूंकप आने से पहले भूमिगत गतिविधियों का समझ लेना या उनका भूकंप आने से पहले चिल्लाना। अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य में यह क्षमता अधिक है किन्तु मनुष्य भौतिकवाद के बंधन में स्वयं को फसा कर इस आश्चर्यजनक रहस्यों से दूर हो जाता है। भौतिक व सांसारिक मामलों में लीन होने के कारण मनुष्य पराभौतिक चीज़ों को नहीं समझ पाता। स्पष्ट है कि मनुष्य जितना अधिक सांसारिक मोह-माया से दूर रहेगा और अपने व ईश्वर के बीच मौजूद रुकावटों को हटा देगा उतना ही उसमें परिज्ञान बढ़ता जाएगा।              

हालांकि मनुष्य को सृष्टि में मौजूद सभी चीज़ों के बाद पैदा किया गया है किन्तु इस व्यवस्था में उसका स्थान बहुत ऊंचा है। वास्तव में मनुष्य के अस्तित्व से ही सृष्टि संपूर्ण हुयी है। पवित्र क़ुरआन में मनुष्य के उच्च स्थान की ओर संकेत किया गया है। सूरए बक़रा की आयत क्रमांक 30 में आया हैः मैं धरती पर अपना उत्तराधिकारी बनाने वाला हूं। इस आयत के हवाले से मनुष्य में इस धरती पर ईश्वर का उत्तराधिकारी बनने की क्षमता है क्योंकि मनुष्य में ऐसी शक्ति है कि वह पूरी सृष्टि पर वर्चस्व जमा सकता है। यही वह स्थान है जो सृष्टि में उसके मूल्य को बताता है। ईश्वर के उत्तराधिकारी बनने की क्षमता व अवसर हर व्यक्ति के अस्तित्व में निहित है किन्तु इसके लिए उसे प्रयास करना होगा। इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि ईश्वर पर विश्वास, परिज्ञान से प्राप्त होता है और फिर इसके परिणाम में मनुष्य सदकर्म करता है और इस प्रकार पूरा जीवन ईश्वर के लिए समर्पित कर देता है।

यह वही चीज़ है जिसे पवित्र क़ुरआन में मनुष्य के पैदा करने का उद्देश्य बताया गया है अर्थात ईश्वर की उपासना को जीवन का ध्येय बनाना। सृष्टि में मनुष्य एकमात्र अस्तित्व है जिसमें ईश्वर के उत्तराधिकारी बनने की क्षमता है इसलिए ऐसे व्यक्ति के लिए इस तुच्छ संसार के मामलों में खो जाना तथा अपने उच्च व दिव्य स्थान से लापरवाह करना बहुत बड़ा घाटा है। आशा करते हैं कि इस स्थान तक एक न एक दिन मनुष्य पहुंच जाएगा।  

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