हर निर्भर अस्तित्व या संभव अस्तित्व को कारक की आवश्यकता होती है और इस इस सिद्धान्त से कोई भी अस्तित्व बाहर नहीं है किंतु चूंकि ईश्वर का अस्तित्व इस प्रकार का अर्थात संभव व निर्भर नहीं होता इस लिए उस पर यह नियम लागू नहीं होता।
भौतिक विचार धारा के कुछ मूल सिद्धान्त इस प्रकार हैं
पहला सिद्धान्त यह है कि सृष्टि/ पदार्थ और भौतिकता के समान है और उस वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार किया जा सकता है जो पदार्थ और घनफल रखती है अर्थात लंबाई, चौड़ाई और व्यास रखती हो। या फिर पदार्थ की विशेषताओं में से हो और पदार्थ की भांति मात्रा रखती हो और विभाजन योग्य भी हो। अर्थात भौतिक विचारधारा का यह कहना है कि यदि कोई वस्तु है तो उसका व्यास होना चाहिए उसका पदार्थ होना आवश्यक है उसका मात्रा व घनफल होना आवश्यक है और यदि कोई किसी ऐसे अस्तित्व के होने की बात करता है जिसमें यह सब विशेषताएं नहीं पायी जातीं हैं तो उसकी बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि ईश्वर को मानने वाले कहते हैं कि ईश्वर पदार्थ नहीं है, उसकी मात्रा नहीं है और उसे नापा- तौला नहीं जा सकता अर्थात भौतिकता से परे किसी अस्तित्व का होना संभव नहीं है।
यह सिद्धान्त भौतिकतावादी विचार- धारा का मूल सिद्धान्त समझा जाता है किंतु वास्तव में एक निराधार दावे के अतिरिक्त कुछ नहीं है क्योंकि भौतिकता से परे वास्तविकताओं को नकारने का कोई ठोस प्रमाण मौजूद नहीं है अर्थात इसका कोई प्रमाण नहीं है कि जो वस्तु भौतिक होगी उसी का अस्तित्व होगा और जिस वस्तु में भौतिकता नहीं होगी उसका अस्तित्व भी संभव नहीं। विशेषकर मेटिरियालिज़्म के आधार पर जो प्रयोग और बोध पर आधारित होता है।
क्योंकि कोई भी प्रयोग, भौतिकता से परे की वास्तविकताओं के बारे में कुछ भी स्पष्ट करने की क्षमता नहीं रखता।
अर्थात मेटिरियालिज़्म शत प्रतिशत प्रयोग व बोध पर आधारित होता है और प्रयोग व बोध केवल भौतिक वस्तुओं के लिए ही होता है इस लिए प्रयोग भौतिकता से परे वास्तविकताओं के सच या ग़लत होने को सिद्ध करने की क्षमता नहीं रखता। अधिक से अधिक इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि प्रयोग द्वारा, भौतिकता से परे वास्तविकताओं को सिद्ध नहीं किया जा सकता किंतु इस से यह नहीं सिद्ध होता कि भौतिकता से परे किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है। इस प्रकार से कम से कम यह तो मानना पड़ेगा कि इस प्रकार के अस्तित्व की संभावना है अर्थात भौतिक विचार धारा रखने वालों को मानना पड़ेगा कि चूंकि प्रयोग द्वारा भौतिकता से परे अस्तित्वों को परखा नहीं जा सकता इस लिए संभव है कि इस प्रकार का अस्तित्व हो किंतु हम उसका प्रयोग नहीं कर सकते और यह हम पहले ही बता चुके हैं कि हमें बहुत सी ऐसी वस्तुओं के अस्तित्व पर पूर्ण विश्वास है जिन्हें देखा या महसूस नहीं किया जा सकता बल्कि जिन्हें प्रयोगों द्वारा भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस प्रकार की बहुत से अस्तित्वों का उल्लेख दर्शन शास्त्र की पुस्तकों में विस्तार से मौजूद है।
उदाहरण स्वरूप स्वंय आत्मा या फिर ज्ञान के अस्तित्व को हम मानते हैं किंतु इसे छूकर या सूंघ कर महसूस नहीं कर सकते अर्थात प्रयोगशाला में ज्ञान का पता नहीं लगाया जा सकता और न ही आत्मा को सिद्ध किया जा सकता है।
आत्मा जो भौतिकता से परे है उस की उपस्थिति का सब बड़ा प्रमाण सच्चे सपनें हैं और बहुत से महापुरुषों और तपस्वियों तथा ईश्वरीय दूतों द्वारा पेश किये गये चमत्कार हैं जो साधारण मनुष्य के लिए संभव नहीं हैं यह ईश्वरीय दूतों के चमत्कार ऐतिहासिक रूप से सिद्ध हैं और इन्हें कहानियां नहीं समझा जा सकता है।
इस प्रकार से अभौतिक अस्तित्व की उपस्थिति सिद्ध होती है और इस प्रकार से ईश्वर के बारे में भौतिक विचार धारा का तर्क निराधार हो जाता है।
भौतिक विचार धारा का दूसरा सिद्धान्त यह है कि पदार्थ सदैव से था और सदैव रहेगा और उसे पैदा नहीं किया जा सकता और उसे किसी कारक की आवश्यकता नहीं है और वास्तव में वही स्वयंभू अस्तित्व है।
इस सिद्धान्त में पदार्थ के सदैव से होने और अनन्तकाल तक रहने पर बल दिया गया है और उसके बाद यह निष्कर्ष निकाला गया है कि पदार्थ की रचना नहीं की जा सकती अर्थात किसी ने उसकी रचना नहीं की है वह स्वंय ही अस्तित्व में आया है किंतु पहली बात तो यह है कि प्रयोग व विज्ञान की दृष्टि से पदार्थ का ऐसा होना सिद्ध ही नहीं है क्योंकि प्रयोग की पहुंच सीमित होती है और प्रयोग द्वारा किसी भी वस्तु के लिए यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि वह अनन्त तक रहने वाली है अर्थात किसी भी प्रकार का प्रयोग, स्थान व काल की दृष्टि से से ब्रह्मांड के अनन्त होने को सिद्ध नहीं कर सकता।
दूसरी बात यह है कि यदि मान भी लिया जाए कि पदार्थ अन्नत काल तक रहने वाला है तो भी इसका अर्थ यह नहीं होगा कि उसे किसी पैदा करने वाले की आवश्यकता नहीं है जैसाकि एक अनन्तकालीन व्यवस्था के गतिशील होने को यदि स्वीकार किया जाए तो उस व्यवस्था को अनन्तकाल की दशा तक पहुंचाने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
इस प्रकार से यह नहीं माना जा सकता है कि पदार्थ के अनन्तकालिक होने की दशा, उसे उस दशा में पहुंचाने वाली ऊर्जा की आवश्यकता से ही मुक्त कर देती है और यदि यह भी मान लिया जाए कि पदार्थ की किसी ने रचना नहीं की है तो भी इस का अर्थ कदापि यह नहीं होता कि पदार्थ इस कारण स्वंयभू अस्तित्व वाला हो जाएगा क्योंकि पिछली चर्चाओं में हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि पदार्थ किसी भी दशा में स्वंयंभू अस्तित्व नहीं हो सकता।