पिछली चर्चा में हमने जाना कि प्रत्येक मनुष्य में प्रगति की चाहत होती है और वह स्वाभाविक रुप से अपनी कमियों को छिपाने का प्रयास करता है प्रगति की स्वाहाविक चाहत को यदि सही दिशा मिल जाए तो वह मनुष्य की परिपूर्णता का कारण बनती है अन्यथा विभिन्न प्रकार के अवगुणों को जन्म देती है।
इस के साथ ही हम ने इस बात पर भी चर्चा की कि पेड़ पौधों को अपनी प्रगति के लिए विशेष प्रकार की परिस्थितियों और वस्तुओं की आवश्यकता होती है
इसी प्रकार पशुओं की प्रगति विशेष प्रकार की है और उस के लिए बुद्धि सहित कुछ विशेष तत्वों की आवश्यकता होती है।
मनुष्य स्वाभाविक रुप से स्वंय को समस्त अच्छाइयों से सुसज्जित करना चाहता है। वह चाहता है कि ऐसे काम करे जो उसे एक परिपूर्ण मनुष्य बना दें
और सब लोग उसे अच्छा कहें और समझें अर्थात स्वाभाविक रुप से हर व्यक्ति में सही अर्थों में मनुष्य बनने की इच्छा होती हैं
किंतु इस बात को जानने के लिए कि कौन से वास्तव में आनन्द होग की पाश्विक भावना का अनुसरण करते हैं उन्हें मनुष्य नहीं कहा जा सकता ।
क्योंकि मनुष्य को ईश्वर ने इच्छा के साथ बुद्धि भी दी है जब कि पशुओं को केवल इच्छा दी है इस लिए जो मनुष्य बुद्धि के प्रयोग के बिना अपनी इच्छाओं का अनुसरण करता है
वह पशुओं से भी बुरा होता है। क्योंकि पशुओं के पास तो बुद्धि नहीं होती किंतु मनुष्य के पास बुद्धि होती है फिर भी वह उस का प्रयोग नहीं करता।
इस के साथ यह भी है कि चूंकि ऐसे लोग अपनी मानवीय योग्यताओं को जो वास्तव में ईश्वरीय कृपा होती है, नष्ट करते हैं इस लिए उन्हें दंड भी मिलता है।
क्योंकि स्वाभाविक बात है कि यदि आप किसी को कोई बहूमूल्य उपहार दें और उपहार लेने वाला उस का प्रयोग न करे बल्कि उसे नष्ट कर दे तो निश्चित रुप से आप को गुस्सा आएगा।
मनुष्य और ईश्वर के बारे में भी यही स्थिति है। ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि तथा अन्य बहुत सी योग्यताएं दी हैं
अब यदि मनुष्य अपनी बुद्धि और योग्यताओं का प्रयोग न करे और अपनी परिपूर्णता में उस का प्रयोग न करे
बल्कि उसे नष्ट करके पशुओं की भांति केवल अपनी इच्छाओं का अनुसरण करने लगे तो निश्चित रुप से वह ईश्वर के प्रकोप का पात्र बनेगा कि जिस ने उसे यह योग्यतांए प्रदान की हैं।
अच्छे कर्म मनुष्य को उस के गंतव्य तक पहुंचाएंगे किंतु सबसे पहले उसे अपनी परिपूर्णता की सीमाओं का ज्ञान प्राप्त करना होगा।
अर्थात मनुष्य को मनुष्य बनने के लिए किसी भी प्रयास से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि एक मनुष्य किस सीमा तक आगे जा सकता है कितनी प्रगति कर सकता है और उस की परिपूर्णता की सीमा क्या है?
मानवीय परिपूर्णता का ज्ञान और पहचान मनुष्य के अस्तित्व की वास्तविकता और उस के आरंभ व अंत के ज्ञान पर निर्भर होती है। अर्थात जब तक हमें यह ज्ञान नहीं होगा कि हम क्या हैं?
कौन हैं? कहॉं से आए हैं? हमारी वास्तविकता क्या है? तब तक हमें अपनी परिपूर्णता के मार्ग का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता इसी लिए कहा जाता है कि परिपूर्णता का ज्ञान,
मनुष्य की पहचान पर निर्भर है। उस के बाद मनुष्य के लिए विभिन्न व्यवहारों की अच्छाई व बुराई को जानना और परिपूर्णता के विभिन्न चरणों की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक होगा
ताकि अपने आप को परिपूर्ण मनुष्य बनाने के लिए सही रास्ते को चुन सके क्योंकि मनुष्य जब तक इस रास्ते पर नहीं चलेगा वह सही आयडियालॉजी और मत को स्वीकार नहीं कर सकता।
इस लिए सही धर्म की खोज की दिशा में प्रयास आवश्यक है और उस के बिना मानवीय परिपूर्णता तक पहुंचना संभव नहीं होगा।
क्योंकि जो काम इस प्रकार के मूल्यों व मान्यताओं के अंर्तगत नहीं किए जाएंगे वह वास्तव में मानवीय व्यवहार ही नहीं होंगे।
जैसा कि हम बता चुके हैं जिस प्रकार पेड़ पौधों के विकारस के लिए विशेष परिस्थितियों की आवश्यक्ता होती है
उसी प्रकार मनुष्य के विकास के लिए भी विशेष परिस्थितयां होती चाहिए जो लोग सच्चे धर्म को पहचानने का प्रयास नहीं करते
या फिर पहचान लेने के बाद भी हठ धर्मी व ज़िद के कारण उस का इन्कार करते हैं वह वास्तव में स्वंय को पशुओं की पंक्ति में खड़ा कर लेते हैं।
इस अध्याय में चर्चा के मुख्य बिंदुः
• मनुष्य स्वाभाविक रुप से स्वंय को समस्त अच्छाइयों से सुसज्जित करना चाहता है।
वह चाहता है कि ऐसे काम करे जो उसे एक परिपूर्ण मनुष्य बना दे।
• मनुष्य को मनुष्य बनने के लिए किसी भी प्रयास से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि एक मनुष्य किस सीमा तक आगे जा सकता है
कितनी प्रगति कर सकता है और उस की परिपूर्णता की सीमा क्या है।
• सही धर्म की खोज की दिशा में प्रयास आवश्यक है और उस के बिना मानवीय परिपूर्णता तक पहुंचना संभव नहीं होगा।
• जो मनुष्य बुद्वि के प्रयोग के बिना अपनी इच्छाओं का अनुसरण करता है वह पशुओं से भी बुरा होता है।
क्योंकि पशुओं के पास तो बुद्धि नहीं होती किंतु मनुष्य के पास बुद्धि होती है फिर भी वह उस का प्रयोग नहीं करता।
• मनुष्य यदि ईश्वर द्वारा प्रदान किये गये उपहारों अर्थात अपनी बुद्धि और योग्यताओं को नष्ट करता है तो ईश्वरीय प्रकोप का पात्र बन जाता है।