अल्लाह की कोई भी सिफ़त डराने वाली नही है, न उसकी रहमानीयत में डर है न ही रऊफ़ियत व रज़्ज़क़ियत व ग़फ़्फ़ारियत में, दुआ ए जोशने कबीर में अल्लाह के हज़ार नाम और सिफ़ात बयान हुए हैं जिसमें से सिवाए अदल (न्याय) के किसी में डर नही है। हाँ इस तरह की कुछ दूसरी सिफ़तों का ज़िक्र भी हुआ है मगर वह सब अदल (इंसाफ़) ही की तरफ़ पलटती हैं, इसलिये उसके अदल (इंसाफ़) से डरना चाहिये।
अगर अल्लाह हमारी नेकियों और अच्छे आमाल (कर्मों) का बारीकी से हिसाब करे और ज़र्रा बराबर भी न छोड़े तो बहुत ख़ुश करने वाली बात है लेकिन अगर वह गुनाह (पाप) का इसी तरह हिसाब कर ले तो ज़ाहिर है कि गुनाहगार (पापी) इंसान की क्या हालत होगी। यह भी मालूम होना चाहिये कि अल्लाह इंसान को सिर्फ़ एक बार नही जलायेगा ताकि उसका काम हो जाये बल्कि मौत और मुसीबत की हज़ारों वजहें जमा होगीं और इंसान को अपने घेरे में ले लेगीं फिर भी वह मरेगा नही बल्कि अज़ाब (पाप का सज़ा) झेलता रहेगा। क़ुरआने करीम में जहन्नम के बारे में ऐसी चीज़ें बयान हुई हैं कि अगर इंसान ज़र्रा बराबर भी फ़िक्र करे तो उसकी रातों की नींद उसकी आँखों से उड़ जायेगी। (و یاتیہ الموت من کل مکان وما ھو بمیت) और मौत हर तरफ़ से उसे घेर लेगी उसके बावजूद वह मरेगा नही।
इस ख़्याल में न रहें कि जिस के पास खाने को कुछ नही है या जो लोग जेलों में हैं सज़ायें काट रहे हैं बेचारे हैं इसलिये कि वह एक दिन जेल से और भूखा एक दिन भूख से रिहाई पा जायेगा। बेचारा वह है जो अदले इलाही (अल्लाह की अदालत) में फँस जाये और अल्लाह उसे माफ़ न करे।
जब इंसान का नाम ए आमाल (कर्म) अल्लाह के पास जाता है। तो जितने भी छोटे बड़े गुनाह (पाप) जहाँ कहीं जिससे भी होते हैं सब उसमें लिखा होता है।
इस हिसाब किताब में सिर्फ़ वही कामयाब होगा जिसका नाम ए आमाल (कर्म) नेकियों से भरा होगा। उनमें से बेहतरीन लोग वह होगें जिन्होने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की राह में ज़हमते कीं होगीं, थके होगें, इसलिये कि अगर यह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के लिये न होता तो वह यह सख़्तिया बरदाश्त न करते।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का मक़ाम व मरतबा इतना बुलंद है कि बुज़ुर्ग उलामा और बुज़ुर्गाने शहर उसमें शिरकत और ख़िदमत (सेवा) करना फ़ख़्र (गर्व) समझते हैं। जैसे हर साल कर्बला में आशूर के दिन मातमी दस्ते अज़ा ए तूरीज[1] के नाम से जुलूस निकालते थे जिसमें सैयद बहरूल उलूम[2] शरीक होते थे। आप फ़रमाते थे मैने इमाम ज़माना (अज्जल्लाहो फरजहुश शरीफ़) को इसमें देखा है। यह मातमी दस्ता जब तक मैं कर्बला (33 साल पहले) में था हर साल जुलूस उठाता था, हज़ारों लोग इसमें शिरकत करते थे और नंगे पैर दौड़ते और मातम करते थे। मैंने अकसर मराजे ए तक़लीद (शियों के सबसे बड़े धर्म गुरु) को देखा है कि वह नंगे पैर सर पीटते हुए या हुसैन या हुसैन करते थे। इसमें शरीक होने वालो में वज़ीर, वकील और रईस लोग शामिल हैं।
यह लोग अपने क़रीबी रिश्तेदारों के मरने पर भी ऐसा नही करते थे और उनकी सारी ज़िन्दगी ग़ुज़र जाती मगर वह कभी भी ऐसा नही करते। ख़ुश नसीब हैं वह लोग, ख़ुश नसीब.....।