हमारा अक़ीदह है कि कोई भी यह नही कह सकता है कि “कफ़ाना किताबा अल्लाहि ”हमें अल्लाह की किताब काफ़ी है और अहादीस व सुन्नते नबवी (जो कि तफ़्सीर व क़ुरआने करीम के हक़ाइक़ को बयान करने , क़ुरआने करीम के नासिख़- मँसूख़ व आमो ख़ास को समझने और उसूल व फुरू में इस्लामी तालीमात को जान ने का ज़रिया है।)की ज़रूरत नही है। “इस इबारत का मतलब यह नही है कि तारीख़ मे ऐसा किसी ने नही कहा,बल्कि मतलब यह है कि कोई भी सुन्नत के बग़ैर तन्हा किताब के ज़रिये इस्लाम को समझ ने का दावा नही कर सकता ” मुतरजिम।
क्योँ कि क़ुरआने करीम की आयात ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की सुन्नत को- चाहे वह लफ़्ज़ी हो या अमली - मुसलमानों के लिए हुज्जत क़रार दिया है और आप की सुन्नत को इस्लाम के समझ ने व अहकाम के इस्तँबात के लिए एक असली मनबा माना है।“मा अता कुम अर्रसूलु फ़ख़ुज़ुहु व मा नहा कुम अनहु फ़इन्तहू”[1] रसूल जो तुम्हें दे ले लो (यानी जिस बात का हुक्म दे उसे अन्जाम दो)और जिस बात से मना करे उस से परहेज़ करो।
“व मा काना लिमुमिनिन व ला मुमिनतिन इज़ा क़ज़ा अल्लाहु व रसूलुहु अमरन अन यकूना लहुम अलख़ियरतु मिन अमरि हिम व मन यअसी अल्लाहा व रसूलहु फ़क़द ज़ल्ला ज़लालन मुबीनन।”[2] यानी किसी भी मोमिन मर्द या औरत को यह हक़ नही है कि जब किसी अम्र मे अल्लाह या उसका रसूल कोई फ़ैसला कर दें तो वह उस अम्र में अप ने इख़्तियार से काम करे और जो भी अल्लाह और उस के रसूल की नाफ़रमानी वह खिली हुई गुमराही में है।
जो सुन्नते पैग़म्बर(स.)की परवा नही करते दर हक़ीक़त उन्हों ने क़ुरआर्ने करीम को नज़र अँदाज़ कर दिया है। लेकिन सुन्नत के लिए ज़रूरी है कि वह मोतबर ज़राये से साबित हो,ऐसा नही है कि जिसने हज़रत की सीरत के मुताल्लिक़ जो कह दिया सब क़बूल कर लिया जाये।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि “व लक़द कुज़िबा अला रसूलि अल्लाहि सल्ला अल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम- हत्ता क़ामा ख़तीबन फ़क़ाला मन कजबा अलैया मुताम्मदन फ़ल यतबव्वा मक़अदहु मिन अन्नारि ”[3] यानी पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की ज़िन्दगी मे ही बहुत सी झूटी बातों को पैग़म्बर (स.)की तरफ़ निस्बत दी गई तो पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ख़ुत्बा देने के लिए खड़े हुए और फ़रमाया कि जो अमदन किसी झूटी बात को मेरी तरफ़ मनसूब करे,वह जहन्नम में अपने ठिकाने के लिए भी आमादह रहे।
इस मफ़हूम से मलती जुलती एक हदीस सही बुख़ारी में भी।[4]
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