पुस्तक का नामः पश्चाताप दया की आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला हुसैन अंसारीयान
हुर के क़दम दुश्मन के जाल से निकल चुके थे, वह दुनिया को पीछे छौड़ चुका था, शासन, पद और हैबत तथा जलालत सब कुछ पीछे रह गए थे उस समय यदि क़दमो मे थोड़ा सा जमाओ हो तो सारी समस्याओ एंव कठिनाईयो से भी पार हो जाएंगे, उनको याद आया कि इस मार्ग मे कोई समस्या एंव कठिनाई भी नही है, यदि मुजाहिद अपने घर से क़दम निकाले और रास्ते ही मे अपने लक्ष्य तक पहुंचने से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो जाए तो भी ईश्वर की दया एंव कृपा उसके शामिले हाल होती है, और ईश्वर उसको स्वर्ग मे स्थान देता है।
हुर जैसा स्वतंत्र मनुष्य इन तीन चरणो से गुज़र चुका था जो वासत्व मे जादू थे।
1- शत्रुओ की ग़ुलामी और उनके प्रभाव से।
2- सांसारिक चमक दमक से।
3- आपदाओ के चरणो से।
हुर के भीतर सच्चाई एंवम वास्ताविकता को समझने की क्षमता इस सीमा तक थी कि यदि उसके टुक्ड़े टुक्ड़े भी कर दिया जांऐ तब भी उसको सच्चाई, हक़ीक़त और स्वर्ग के मार्ग से विचलित नही किया जा सकता। “ओस” ने शरणार्थियो (मुहाजेरीन) को उत्तर देते हुए कहाः हुर स्वमं को स्वर्ग और नर्क के बीच देखता है, उस समय हुर ने कहाः ईश्वर की सौग्ध मै स्वर्ग की तुलना मे किसी चीज़ का भी च्यन नही कर सकता, तथा इस मार्ग से भी नही हटूंगा चाहे मेरे टुक्ड़े टुक्ड़े करके मुझे आग मे जलाकर भस्म भी कर दिया जाए! उसके बाद अपने अश्व को दौड़ाते हुए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ओर चल पड़ा जैसे ही निकट पहुंचा तो अपनी ढ़ाल को उलटा कर लिया, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथियो ने कहाः यह व्यक्ति कोई भी हो शरण चाहता है, जो व्याकुल स्थिति मे रोता और गिड़गिड़ाता हुआ चला आ रहा है।
जारी