इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का अख़लाक़ और आपका व्यवहार इस प्रकार का था कि आपने अपने शत्रुओं तक को अपना मुरीद बना लिया करते थे, आप लोगों के साथ बहुत सम्मान अदब और मेहरबानी के साथ बर्ताव किया करते था और कभी भी स्वंय को लोगों को अलग नहीं समझते थे।
इमाम का एक साथी कहता हैः “मैंने कभी नहीं देखा कि इमाम रज़ा (अ) ने अपनी बात में किसी पर ज़ुल्म किया हो और मैंने कभी नहीं देखा कि आपने किसी की बात पूरी होने से पहले काट दी हो, आपने कभी भी किसी ऐसे ज़रूरतमंद को जिसकी आवश्यकता को पूरा कर सकते हों वापस नहीं लौटाया, दूसरों के सामने आप पैर नहीं फैलाते थे, मैंने कभी नहीं देखा कि आपने अपने किसी सेवल को बुरा भला कहा हो, आपकी हसीं क़हक़हा नहीं बल्कि मुस्कान थी, जब दस्तरख़ान लगता था तो घर से सभी लोगों यहां तक की दरबान और सेवक को भी अपने दस्तरख़ान पर बुला लिया करते थे और उनके साथ खाना खाया करते थे, रातों को कम सोते थे और अधिकतर रातों में ईश्वर की उपासना किया करते थे, बहुत अधिक रोज़ा रखा करते थे, और महीने में तीन दिन के रोज़ कभी नहीं छोड़ते थे, नेक कार्यों और सदक़ों को छिपा कर किया करते थे, रात के अंधेरे में फ़क़ीरों की छिपकर सहायता किया करते थे”।
आपका एक दूसरा साथी कहता हैः “गर्मियों में आपका पिछौना चटाई और सर्दियों में प्लासी था, घर में आपके कपड़े मोटे और खुरदुरे थे, लेकिन जब आप सार्वजनिक स्थल पर जाते थे तो श्रंगार करते थे (अच्छे और सामान्य कपड़े पहनते थे)”।
एक रात अपके यहां एक मेहमान आया बात करते करते अचानक चिराग़ ख़राब हो गया, इमाम ने मेहमान ने चिराग़ सही करने के लिए हाथ बढ़ाया लेकिन आपने उसे एसा नहीं करने दिया और स्वंय उसको ठीक किया और फ़रमायाः “हम वह लोग है जो अपने मेहमानों से काम नहीं कराया करते”।
एक व्यक्ति ने इमाम से कहाः “ख़ुदा की क़सम इस धरती पर सम्मान और फज़ाएल में आपके पूर्वजों तक कोई नहीं पहुँच सकता, इमाम ने फ़रमायाः तक़वा और परहेज़गारी ने उनको सम्मान दिया और ईश्वर के आदेशों के पालन ने उनको श्रेष्ठता दी”।
बल्ख़ का रहन वाला एक व्यक्ति कहता हैः “ख़ुरासान की यात्रा में मैं इमाम रज़ा (अ) के साथ था एक दिन हमने दस्तरख़ान बिछाया और इमाम ने भी अपने सेवकों यहां तक के कालों को भी अपने साथ दस्तरख़ान पर बिठा लिया, मैंने इमाम से कहाः मेरी जान आप पर क़ुर्बान हो जाए बेहतर यह है कि यह लोग अलग दस्तरख़ान पर बैठें, इमाम ने फ़रमायाः “चुप हो जाओ, सबका ख़ुदा एक है, सबके माता पिता एक हैं, और सबका हिसाब उसके कर्मों के अनुसार है”।
इमाम का सेवक यासिर कहता हैः इमाम रज़ा (अ) ने हमसे फ़रमा रखा थाः “अगर में तुम्हारे सरों पर खड़ा हूँ (और तुमसे किसी कार्य के लिये कहूँ) और तुम खाना खा रहे तो जब तक अपना खाना समाप्त न कर लो न उठना”, इसी कारण बहुत समय ऐसा होता था कि इमाम हमको पुकारते थे और उनके उत्तर में कहा जाता था कि, “वह खाना खा रहे हैं” और आप फ़रमाया करते थेः उनको खाना खा लेने दो।
एक दिन एक विदेशी इमाम के पास पहुँचा और सलाम किया और कहने लगाः “मैं आपका और आपके पूर्वजों का चाहने वाला हूँ, हज से आया हूँ और पैसा समाप्त हो गया है आप मुझे कुछ पैसा दे दें ताकि मैं अपने घर पहुँच सकूँ और जितना पैसा आप देंगे उसी मात्रा में मैं अपने घर पहुँचने के बाद सदक़ा दे दूँगा, क्योंकि मैं ग़रीब नहीं हूँ लेकिन यात्रा में मेरे पास पैसा समाप्त हो या है। इमाम उठे और दूसरे कमरे में गए और दरवाज़े के पीछे से अपने हाथ को बाहर निकाला और फ़रमायाः “यह दो सौ दीनार ले लो और चले जाओ और ज़रूरी नहीं है कि मेरी तरफ़ से सदक़ा दो”।
उस व्यक्ति ने पैसा लिया और चला गया। लोगों ने इमाम से पूछा आपने ऐसा क्यों किया और दीनार देते समय उसका चेहरा क्यों नहीं देखा? आपने फ़रमाया: “ताकि उसके चेहरे पर मांगने की लज्जा को न देख सकूँ”।
हमारे मासूम इमामों की यह रीत रही है कि वह केवल कथनों से ही लोगों का मार्गदर्शन नहीं करते हैं बल्कि उनके आमाल और कार्यों पर भी ध्यान रखते हैं।
इमाम रज़ा (अ) का एक सहाबी कहता हैः एक दिन इमाम के साथ मैं उनके घर गया, इमाम के दास कुछ बनाने में व्यस्त थे, इमाम ने उनके बीच एक अजनबी को देख और पूछाः “यह कौन है? उन्होंने कहाः यह हमारी सहायता कर रहा है और हम इसको मज़दूरी देंगे। इमाम ने फ़रमायाः मज़दूरी तै कर ली है? कहाः नहीं हम जो भी देंगे यह ले लेगा, इमाम क्रोधित हो गए और और मुझसे कहाः मैंने इनको बहुत बार समझाया है कि किसी को न लाओ मगर यह कि पहले से मज़दूरी तै कर लो, अगर किसी को मज़दूरी तै किये बिना लाओ तो अगर उसको तीन गुना भी मज़दूरी दे दो तब भी वह यही समझता है कि उसको कम दिया है लेकिन अगर पहले से तै कर लो और उसी मात्रा में उसको दो तो वह तुमसे राज़ी रहेगा, और अगर तै रक़म से अधिक दे दो तो चाहे वह रक़म बहुत कम ही क्यों न हो उसको समझ में आएगा कि तुमने ज़्यादा दिया है और वह तुम्हारा धन्यवाद करेगा”।
इमाम का सेवक कहता हैः एक दिन इमाम के दास फल खा रहे थे, और वह लोग पूरा फल खाए बिना ही फेंक रहे थे, आपने उनसे फ़रमायाः “सुबहान अल्लाह अगर तुमको उसकी आवश्यकता नहीं है तो उसको दे दो जिसको उसकी आवश्यकता है”।