रमज़ान के इस पवित्र महीने में आइए हम क़ुरआन के सूरे हम्द की छठी और सूरए बक़रह की आयत संख्या २८६ के शब्दों में ईश्वर से दुआ करें-हे ईश्वर सीधे मार्ग पर हमारा मार्गदर्शन कर।हे पालनहार, यदि हम भूल गए हैं या हमने ग़लत क़दम उठाए हैं तो हमसे पूछताछ न कर।हमारे लिए भारी कर्तव्य निर्धारित न कर, जैसाकि पाप और उद्दंडता के कारण तूने हमसे पहले वाले लोगों के लिए निर्धारित किये थेहे अन्नदाता, जिस चीज़ को हम सहन नहीं कर सकते उसे हमारे लिए निर्धारित न कर। पाप के प्रभावों को हमसे दूर कर दे और हमें क्षमा कर दें और हमें अपनी कृपा का पात्र बना। तू हमारा पालनहार है अतः हमें काफ़िरों पर विजयी बना।रोज़े के शरीर और आत्मा पर पड़ने वाले लाभदायक प्रभावों के अतिरिक्त मानव समाज पर भी इसके अनके सकारात्मक प्रभाव देखने में आते हैं। इन प्रभावों में से एक, मानवीय भावनाओं का जागृत होना है। रोज़े के आधार पर मनुष्य को भूखों और निर्धनों के दुख-दर्द का आभास होता है। भूख और प्यास सहन करके बड़ी सरलता से समझा जा सकता है कि समाज के निर्धन और बेसहारा लोगों पर क्या बीतती है और इस प्रकार उसमें दीन-दुखियों की सहायता की भावना भी उत्पन्न हो सकती है। यही कारण है कि रमज़ान के पवित्र महीने में मुस्लिम समाजों में दीन-दुखियों की सहायता बहुत अधिक देखने में आती है।एक धनवान और समझदार रोज़ा रखने वाला व्यक्ति यह भी सोचना है कि समाज का यह वंचित और निर्धन वर्ग जो अपनी सहनशीलता और सज्जनता के कारण आवश्यकता होते हुए भी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाता तो ईश्वर की दृष्टि में वह कितना महत्वपूर्ण है और यदि किसी कारणवश इसे अपने आत्मसम्मान को किनारे लगाकर हाथ फैलाने पड़ जाएं तो ईश्वर हमसे कितना अप्रसन्न होगा कि हमने समय रहते उसकी सहायता क्यों नहीं की? समाज के वंचित और निर्धन वर्ग की सहायता की भावना इस्लामी समाज के वातावरण को प्रेम और कृपा से ओतप्रोत कर देती है।सामाजिक समरस्ता एवं एकता की भावना उत्पन्न करना भी रमज़ान महीने के प्रभावों में से एक है। इस्लाम की दृष्टि में ईश्वर का सामिप्य एवं उसकी उपासना केवल नमाज़ और रोज़े में निहित नहीं है बल्कि इसके साथ-साथ सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह और ईश्वर के बंदों की सेवा तथा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयास करना भी अत्यंत आवश्यक है। पवित्र रमज़ान की हर दिन से विशेष दुआ में भी दुखी, निर्धन और जीवन की कठिनाइयों से जूझते लोगों की सहायता पर विशेष ध्यान दिया गया है।मनुष्य पर ईश्वर की एक महान अनुकंपा, बात करने की क्षमता है। मनुष्य शब्दों की सहायता से अपनी भावनाओं एवं उद्देश्यों को व्यक्त कर सकता है। पवित्र क़ुरआन की आयतों में आया है कि बात करने की क्षमता व शक्ति, ईश्वर द्वारा प्रदान की गई एक महान विशेषता है और इसको व्यवहारिक बनाने के लिए विभिन्न भावनाओं और शब्दावलियों ने जन्म लिया है। अब हम देखेंगे कि पवित्र क़ुरआन ने मनुष्यों के बीच प्रभावी संपर्क उत्पन्न करने के लिए किसी प्रकार की दक्षता की बात की है कि उसकी सहायता से व्यक्ति अपने उद्देश्य तक सरलता से पहुंच सकता है अर्थात अपना संदेश पूर्ण रूप से दूसरों तक पहुंचा सकता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि किस प्रकार बात की जाए? पवित्र क़ुरआन की दृष्टि में वह संपर्क स्वस्थ्य और सार्थक होता है जिसमें एक दूसरे के व्यक्तित्तव का आदर किया जाए, भावनाओं को महत्व दिया जाए और परस्पर सम्मान को निरंतर दृष्टिगत रखा जाए। स्पष्ट सी बात है कि जब बात करने वाला पक्ष, बुरे और अप्रशंसनीय शब्दों से किसी को संबोधित करेगा तो उस व्यक्ति पर न केवल यह कि कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा बल्कि संबन्धों के टूटने की स्थिति भी उत्पन्न हो जाएगी। यद्यपि लोगों के बीच संपर्क कृपा और सम्मान तथा घृणा और अपमान के आधार पर बनते हैं परन्तु मानव प्रवृत्ति बुरे शब्दों को पसंद नहीं करती बल्कि उसका झुकाव भले और सुन्दर शब्दों की ओर होता है। यही कारण है कि ईश्वर अपनी पवित्र पुस्तक क़ुरआन के सूरए बक़रह की आयत संख्या ८३ में कहता है, "लोगों से भली बात करो"एक दूसरे स्थान पर पवित्र क़ुरआन स्पष्ट शब्दों में अपने अनुयाइयों से कहता है कि वे लोग जो ईश्वर के स्थान पर किसी और को पुकारते हैं उन्हें भी अपशब्द न कहो। (क्योंकि इस प्रकार) कहीं वे भी अत्याचार एवं अज्ञानता के आधार पर ईश्वर के लिए अपशब्द प्रयोग न करने लगें।मनुष्य की जीवनदायक पुस्तक क़ुरआन, लोगों को अपशब्द प्रयोग करने और बुरी बातें करने से रोकते हुए सूरए इस्रा की ५३वीं आयत में कहती है कि "मेरे बंदों से कहो उत्तम बातें करें क्योंकि शैतान बुरे शब्दों द्वारा उनके बीच लड़ाई-झगड़े फैलाता है। शैतान सदैव ही मनुष्य का खुला हुआ शत्रु रहा है।हमारे समाज में अधिकतर पापों की ज़िम्मेदार ज़बान होती है। कभी किसी के लिए अपमान जनक शब्द कहकर उसकी भावनाओं को उत्तेजित कर देती है जिससे लड़ाई-झगड़े ही नहीं बल्कि हत्याएं तक हो जाती हैं। कभी ऐसे कड़े और विशाक्त शब्दों का दूसरों के लिए प्रयोग किया जाता है कि उसके हृदय पर तलवार से अधिक गहरा घाव लग जाता है। पीठ पीछे बुराई करके तो लोगों पर आरोप लगाना और उनके व्यक्तित्व को गिराना तो समाज की दिनचर्या बन गया है। रमज़ान के महीने में लोगों को ऐसी बातों से बचने के लिए इस सीमा तक बल दिया गया है कि यदि कोई व्यक्ति रोज़ा रखकर इस प्रकार की बातें करता है तो उसका रोज़ा, रोज़ा ही नहीं है।इस महीने में, एक महीने तक खाने-पीने से दूरी के अतिरिक्त ज़बान पर नियंत्रण रखने पर बल देकर मनुष्य को इस बात का प्रशिक्षण दिया जाता है कि वह बाक़ी ग्यारह महीनों में किसी प्रकार जीवन बिताए और अपनी बुरी आदतों को छोड़कर किसी प्रकार समाज में अच्छे संबन्ध स्थापित करे।इस महीने में रोज़े की स्थिति में सोने को शायद इसलिए भी पुण्य और उपासना कहा गया है क्योंकि सोया हुआ व्यक्ति अपनी ज़बान, कान और आंखों को पापों और बुराइयों से दूर रखता है।(एरिब डाट आई आर के धन्यवाद के साथ).......166
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