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इमाम हुसैन का आन्दोलन-5

इमाम हुसैन का आन्दोलन-5

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आन्दोलन ने आशूर के दिन अर्थात दस मुहर्रम ६१ हिजरी क़मरी को करबला में आस्था और संस्कारों के सर्वोच्च अर्थ को व्यवहारिक रूप दिया और लोक-परलोक का सम्मान दिलाने वाला एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया। वह संस्कार जो करबला की घटना में सबसे सुन्दर रूप में व्यवहारिक हुआ वह, व्यक्तिगत हितों और आंतरिक इच्छाओं का बलिदान था। दूसरों के लिए अपनी इच्छाओं को बलिदान करना शूरवीरों की एक परंपरा रही है जिसे त्याग के नाम से जाना जाता है। इस्लामी संस्कृति में बलिदानी या त्यागी वह होता है जो ईश्वर के धर्म के लिए अपने पूरे अस्तित्व को न्योछावर करे और उसकी इच्छा की प्राप्ति के मार्ग में अपनी इच्छाओं को अनदेखा कर दे। ईश्वर पवित्र क़ुरआन के सूरए हश्र की नवीं आयत के एक भाग में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के काल में मक्का के पलायनकर्ताओं को स्वीकार करने के संबन्ध में मदीना वासियों के त्याग के बारे में इस प्रकार से कहता है कि वे पलायनकर्ताओं को स्वयं पर वरीयता देते हैं यद्यपि वे स्वयं बहुत आवश्यकता रखते हैं, जिन्होंने स्वयं को लालच व कंजूसी से दूर रखा, वे सफल हैं।बलिदान या त्याग की जड़ें मनुष्य की महान आत्मा में निहित होती हैं। करबला उन लोगों की घटना का वर्णन है जिन्होंने ईश्वर की इच्छा की प्राप्ति के उद्देश्य से निःस्वार्थ भाव से इमाम हुसैन के मार्ग में क़दम बढ़ाए थे।वैसे तो इस्लाम के इतिहास की घटनाओं में त्याग और बलिदान के बहुत से उदाहरण मिलते हैं किंतु किसी भी युद्ध में सैनिकों ने बलिदान के ऐसे उदाहरण प्रस्तुत नहीं किये जैसे इमाम हुसैन के साथियों ने करबला में प्रस्तुत किये। हुसैन इब्ने अली के निष्ठावान साथी, दस मुहर्रम के दिन ज़ोहर की नमाज़ के दौरान इमाम के सामने ढाल की भांति खड़े हो गए और उनकी ओर आने वाले तीरों को वे अपने शरीर से रोकने लगे। जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की नमाज़ समाप्त हुई तो सईद बिन अब्दुल्लाह नामक उनके एक साथी, जिनके शरीर पर १३ तीर लगे थे, धरती पर गिर कर शहीद हो गए। इमाम हुसैन के निष्ठावान एवं त्यागी साथियों में एक हज़रत अब्बास थे जिनकी वफ़ादारी अनउदाहरणीय थी। हज़रत अब्बास इमाम हुसैन के छोटे भाई थे।इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, उनके परिजनों तथा उनके साथियों पर सलाम भेजते हैं और करबला में हज़रत अब्बास के कारनामे आपको सुनाते हैं।हज़रत अब्बास, हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सुपुत्र थे। उनकी माता का नाम उम्मुलबनीन था। हालांकि हज़रत अब्बास, इमाम हुसैन (अ) से बीस वर्ष से अधिक छोटे थे किंतु उन्हें अपने बड़े भाई हुसैन से विशेष लगाव व श्रद्वा थी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम भी हज़रत अब्बास को बहुत चाहते थे। कभी-कभी वे हज़रत अब्बास के पालने के निकट आते और आहिस्ता से उन्हें प्यार करते। वे उन्हें अपनी गोद में लेते और अपने पिता अली की ही भांति अब्बास के हाथों को चूमते थे। एक दिन उम्मुल बनीन ने हज़रत अली से पू्छा कि आप अब्बास की भुजाओं को क्यों इस प्रकार से देखते हैं और उनको क्यो चूमते हैं? इस पर हज़रत अली ने बहुत दुखी स्वर में कहा कि ईश्वर के मार्ग में अब्बास के यह हाथ उनके शरीर से अलग कर दिये जाएंगे।हज़रत अब्बास बहुत तेज़ी से बड़े हो रहे थे। उन्होंने उस काल में, जब इस्लाम के आकाश पर षडयंत्र व फ़ितने के घने बादल छाए हुए थे, अपने पिता अली तथा इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की छत्रछाया में सत्य के मार्ग को पहचाना था। ज्ञान और सदगुणों की प्राप्ति में वे इतना अधिक प्रयासरत थे कि वे अबुलफज़ल अर्थात शिष्टाचारिक गुणों से परिपूर्ण की उपाधि से प्रसिद्ध हुए। शिष्टाचारिक दृष्टि से सब ही उनकी प्रशंसा करते थे।अब्बास को देखकर इमाम हुसैन को शांति मिलती थी। उन्हें देखकर लोग अपने मन में शांति का आभास करते थे। उस समय जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मदीने से यात्रा का संकल्प किया था, हज़रत अब्बास की आयु ३४ वर्ष थी। वे एक परवाने की भांति इमाम रूपी शमा के चारों ओर मंडराते रहते थे। इमाम का कारवां मदीने से तेज़ी से निकल रहा था। हज़रत अब्बास ने विदाई के लिए अपने बच्चों को गोद में लिया। उन्होंने विनम्रतापूर्ण उनसे कहा, मैं ईश्वर की प्रसन्नता के लिए जा रहा हूं और तुमको उसके हवाले करता हूं। ईश्वर की जो भी इच्छा होगी मैं उसे सहृदय स्वीकार करूंगा। बच्चों तुम इस प्रकार न रोओ क्योंकि इससे तुम्हारे चचा हुसैन को कष्ट होगा। याद रखो कि ईश्वर के स्मरण से हृदयों को शांति मिलती है।इमाम हुसैन की उस यात्रा में, जिसमें निश्चित रूप से वापसी संभव नहीं थी, अब्बास निःसंकोच उनके साथ रवाना हुए। यात्रा बहुत कठिन थी। वे एक क्षण के लिए भी इमाम हुसैन से निश्चेत नहीं होते थे। इसके बावजूद कि हज़रत अब्बास शिष्टाचार का ध्यान रखते हुए सदैव ही इमाम हुसैन के पीछे ही चला करते थे, इस यात्रा में वे कभी-कभी इमाम से आगे बढ़ जाते थे कि कहीं ऐसा न हो कि उनके भाई के लिए कोई ख़तरा मौजूद हो।कारवां अब करबला पहुंच चुका था। उस धरती पर जो एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना की साक्षी बनने वाली थी। इमाम के कारवां को यहीं पर ठहरना था। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने साथियों को आदेश दिया कि यहीं पर रूक जाओ और आगे न बढ़ो। तंबुओं को वहीं पर तीन-तीन क़दम की दूरी पर लगाया गया। हज़रत अब्बास का ख़ैमा, इमाम हुसैन के ख़ैमे के निकट था। हज़रत अब्बास रातों को ख़ेमों की पहरेदारी किया करते थे कि कहीं ऐसा न हो कि इमाम हुसैन और उनके परिजनों के लिए कोई समस्या उत्पन्न हो जाए। उनकी पदचापों से बच्चों और महिलाओं को शांति मिलती थी। इमाम हुसैन ने उनसे ख़ैमों की रक्षा के लिए कहा था। अब्बास कभी-कभी ख़ैमों के भीतर चले जाते थे। उनको देखकर बच्चे प्रसन्न होते थे। कभी वे बच्चों के साथ खेलते तो कभी अली असग़र के झूले के निकट जाकर बैठ जाते। कभी वे सकीना के सिर पर हांथ फेरते। बच्चे चचा को अपने निकट पाकर शांत एवं निश्चिंत थे।दस मुहर्रम सन् ६१ हिजरी क़मरी को इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथी विशेष उत्साह के साथ इमाम के आदेश की प्रतीक्षा में हैं। वृद्ध लोग युवाओं से भी अधिक सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। युवा पूरी तरह से अपनी जानें न्योछावर करने के लिए तैयार हैं। इमाम हुसैन की सेना के सेनापति अब्बास पूरी दृढ़ता के साथ इमाम के साथियों के मध्य खड़े हैं। उनके हाथ में इमाम हुसैन की सेना का ध्वज है। अब्बास का उत्साह और उनकी वीरता/हृदयों को शक्ति प्रदान कर रही है। शत्रु ने तीर चलाने आरंभ कर दिये हैं। अब्बास घोड़े पर सवार होकर बढ़ते हैं। तलवार चलाने की उनकी शैली आश्चर्य चकित करने वाली है। जब भी इमाम हुसैन का कोई साथी शत्रु के परिवेष्टन में आता तो अब्बास शत्रु की सेना को तितर-बितर करके परिवेष्टन तोड़ देते हैं। इतिहास में मिलता है कि हज़रत अब्बास ने बारह बार शत्रुओं के परिवेष्टन को तोड़ा था।आधा दिन गुज़र चुका था। करबला के मरूस्थल पर सूर्य अपनी पूरी शक्ति से चमक रहा था। प्यास से सबका बुरा हाल था। प्यास के कारण ख़ैमों से बच्चों के रोने और बिलखने की आवाज़ें आ रही थीं। कौन है जो इन बच्चों को पानी पिलाए? कौन है जो तीरों की वर्षा और तलवारों के वारों के बीच से गुज़रे? सबकी निगाहें अब्बास पर टिकी थीं। यहां तक कि इमाम हुसैन भी हज़रत अब्बास की ओर देख रहे थे। बच्चे अपने चचा को आवाज़ें दे रहे थे। सबकी आशाएं अब्बास से लगी हुई थीं।इमाम हुसैन ने थकी हुई आवाज़ में हज़रत अब्बास से कहा, हे मेरे भाई अब्बास, ख़ैमों में सब प्यासे हैं उनके लिए पानी का प्रबन्ध करो। अब्बास ख़ैमों में आते हैं। सूखी हुई छागल को उठाते हैं। यह देखकर बच्चों को ढारस बंधती है और व


source : www.abna.ir
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