शहादत सालेसा का नमाज़ में पढ़ना कैसा है यह समझने के लिये हमें यह देखना होगा की शहादते सालेसा खुद क्या है ?
देखिये ला इलाहा इल्लाह मोहम्मादुन रसूलिल लाह वो कलम है जिसको पढ़ने के बाद आदमी मुसलमान हो जाता है और एक मुसलमान के सिलसिले में जितने अहकाम है वो उसके लिये जारी हो जाते है मसलन उसके हाथ का खाना पीना जाएज़ हो जाता है पैग़म्बरे इस्लाम ने जब इस्लाम के पैगाम को दुनिया के सामने पेश किया था तो लोग इसी कलमे को पढ़ कर मुसलमान होते थे
लेकिन इस कलमे को पढ़ने वाले के लिये यह नहीं समझा जा सकता है के वो अली (अ .स) की खिलाफाते बिला फ़स्ल को भी मानता है या नहीं या दूसरे लफ्जों में कहें तो वह शिया भी है या नहीं क्योंकि इस कलमे से हमारे ईमान का कामिल इज़हार नहीं होता था इसलिये शियो ने अपनी पहचान के लिये और अपने बच्चो को शियत की तालीम देने के लिये इसमें शहादते सालेसा का भी इजाफा किया और शिओं का कलमा ला इलाहा इल्ला लाह मोहम्मादुन रसूलिल लाह वा अलीयुन वलीउल लाहे वा खलिफतुहू बिला फ़स्ल हो गया अब सवाल ये पैदा होता है की क्या नमाज़ में भी इस को पढ़ा जा सकता है या नहीं तो नमाज़ के सिलसिले में हमें जो हुक्म रसूल से मिला है वो ये है के नामज़ ऐसे पढ़ो जैसे मैं पढ़ता हूँ (सल्लू कमा रेय्तुमुनी उसल्ली )
इस हदीस और दूसरी हदीसों की रौशनी में अक्सर उलमा बल्कि कुछ को छोड़ कर सभी ने कहा है की तशःहुद में दो शहादतों का पढ़ा जाना तो साबित है इसलिये दो शहादतें तो पढ़ी जानी चाहिए शहादते सालेसा नहीं पढ़नी चाहिए लेकिन वो उलेमा जो शहादते सालेसा को पढ़ने को कहते है वो कहते तो हैं की पढ़ना चाहिए लेकिन वो आज तक यह तय नहीं कर पाए हैं की शहादते सालेसा को किन लफ़्ज़ों के साथ पढ़ें अलीयुन वलीउल्लाह तक पढ़ें या खालेफतुहू बिला फसल भी पढ़ें और अगर वो सिर्फ अलीयुन वलीउल्लाह तक पढ़ने को कहते हैं तो हमारा कलमा इस पर तमाम नहीं होता है।
जब तक बिला फ़स्ल न कहा जाये क्योंकि वलीउल्लाह तो सुन्नी भी मानते हैं लेकिन वो बिला फ़स्ल नहीं बल्कि तीन खिलाफतों के फासले के साथ मानते हैं और अगर बिला फ़स्ल भी कहने का फतवा दें तो फतवा देने के लिये इस पर कोई हदीस भी पेश करनी होगी यहाँ ये बात याद रहे की जो उलेमा शहादते सालेसा पढ़ने को मना करते है ऐसा नहीं है की वो शहादते सालेसा पर ईमान नहीं रखते हैं हमारे कुछ ज़ाकेरीन मजलिसों में इस बात को इस तरह कहते हैं की जैसे शहादते सालेसा को नमाज़ में न पढ़ने वाले शहादते सालेसा के मुनकिर हों पढ़ने वालों की तरह ये लोग भी ईमान रखते हैं लेकिन सिर्फ नमाज़ में पढ़ने से मना करते है।
क्या कोई यह सोच सकता है की सय्यद रज़ी या अल्लामा हिल्ली जैसे लोग मौला की खिलाफाते बिला फ़स्ल के कायल नहीं थे या आगा सीस्तानी खिलाफाते बिला फ़स्ल के कायल नहीं है याद रखिये नमाज़ अकीदे के इज़हार की जगह नहीं है नमाज़ अल्लाह की इबादत है अल्लाह और बन्दे के बीच राज़ो नियाज़ का नाम है जिस तरह उसने नमाज़ पढ़ने का हुक्म दिया है हमें उसी तरह पढ़नी होगी और अगर कोई नमाज़ में अकीदे के इज़हार को ज़रूरी समझता है तो उसे जान लेना चाहिए की खालिफतोहू बिला फ़स्ल तक पढ़ना भी काफी नहीं है क्योकि यहाँ तक तो ज़ैदिया और बोहरा हज़रात भी मानते हैं उनके मुकाबले में अपने अकीदे को ज़ाहिर करने के लिये बाकी इमामों की इमामत का ज़िक्र भी हमें करना होगा खुदा की अदालत का ज़िक्र भी करना होगा और इसके अलावा अपने उन अकीदों का ज़िक्र भी करना होगा जो हम से मखसूस हैं मसलन बदा और रजअत वगैरा।
इस तरह नमाज़ आम आदमी के लिये इतनी मुश्किल हो जाएगी के वो कभी नहीं पढ़ पायेगा यहाँ यह बता देना निहायत ज़रूरी है नमाज़ में शहादते सालेसा न पढ़ने वालों को शियत से ख़ारिज समझना खुद अपने बुजुर्गों को शियत से ख़ारिज करना है यह नमाज़ का मसला है ये किस तरह पढ़ी जाये ये हमारे तय करने की चीज़ नहीं है इसलिये इसमें जिद और हटधर्मी से काम नहीं लेना चाहिए बल्कि मरजये वक़्त का जो भी फतवा हो उस पर अमल करना चाहिए।