1. इंसान ने अपनी ज़िन्दगी में जो कि सिर्फ़ दुनियावी और आरेज़ी ज़िन्दगी है, अपनी हयात का ख़ैमा एक बुलबुले की तरह माद्दे (material) से उसका हमेशा वास्ता है।
उसके अँदरुनी और बेरुनी हवास भी माद्दे और माद्दियात (materialism) में मशग़ूल हैं और उसके अफ़कार भी महसूस मालूमात के पाबंद हैं। खाना, पीना, चलना, आराम करना और आख़िर कार उसकी ज़िन्दगी की सारी सरगर्मियाँ माद्दे के इर्द गिर्द घूमती रहती हैं और उसके अलावा कोई और फ़िक्र ही उसके ज़ेहन में नही आती।
और कभी कभी जबकि बाज़ मानवीयात को मसलन दोस्ती, दुश्मनी, बुलंद हिम्मती और आला ओहदा और ऐसे ही दूसरी चीज़ों का तसव्वुर करता है तो उन अकसर तसव्वुरात को सिर्फ़ माद्दी मेयार पर परखता और अंजाम देता है मसलन कामयाबी की मिठाई को खान्ड, शकर और मिठाई के साथ जज़्ब ए दोस्ती को मक़नातीस की कशिश के साथ और बुलंद हिम्मती को मकान और मक़ाम की बुलंदी के साथ या एक सितारे की बुलंदी से और मक़ाम व ओहदे को पहाड़ की बुलंदी के साथ तसव्वुर करता है।
बहरहाल अफ़कार और इफ़हाम, मानवीयात के मतालिब को हासिल करने की शक्ती में जो माद्दी दुनिया से बहुत बड़ी है, बहुत ही फ़र्क़ रखते हैं और उन के लिये कई मरहले हैं। फ़िक्र व शऊर, मानवीयात को तसव्वुर और महसूस करने की ताक़त और शक्ती नही रखते। एक और दूसरी फ़िक्र इससे ऊपर के मरहले की है। इसी तरह यहाँ कि इस फिक्र व फ़हम तक रसाई हो जाये जो वसी तरीन ग़ैर माद्दी मानवीयात को हासिल करने ताक़त रखता हो।
बहरहाल एक फ़हम की ताक़त मानवी मतालिब को समझने के लिये जिस क़दर भी ज़्यादा होगी। उसी निस्बत से उसकी दिलचस्बी माद्दी दुनिया और उसके धोके बाज़ मज़ाहिर की तरफ़ कमतर होगी और उसी तरह जितनी भी माद्दियात की तरफ़ दिलचस्बी कमतर होगी मानवी मतालिब को हासिल करने की ताक़त ज़्यादा हो जायेगी। इसी तरह इंसान अपनी इंसानी फ़ितरत के साथ सब के सब उन मतालिब को समझने की क़ाबेलियत रखते हैं और अगर अपनी क़ाबिलियत को ज़ाया न करें तो तरबीयत के क़ाबिल हैं।
2. ग़ुज़िश्ता बयानात से यह नतीजा हासिल होता है कि फ़हम व शुऊर के मुख़्तलिफ़ मराहिल की मालूमात को ख़ुद उस मरहले से कमतर नही लाया जा सकता वर्ना उसका नतीजा बिल्कुल बर अक्स होगा। ख़ुसूसन ऐसी मानवीयात जो माद्दे और जिस्म की सतह से बहुत बाला तर हैं अगर बे पर्दा और साफ़ साफ़ अवाम को बताई जायें जिन का फ़हम व शुऊर दर हक़ीक़त महसूसात से आगे नही बढ़ता तो इस (कोशिश) का मतलब और मक़सद बिल्कुल फ़ौत हो जायेगा। (यानी इसका कोई फ़ायदा नही होगा।)
हम यहाँ पर मज़हब और सनवीयत का ज़िक्र कर सकते हैं। जो शख़्स गहरे ग़ौर व फ़िक्र के साथ हिन्दी वेदाओं के उपानिशाद के हिस्से पर सोच विचार करे और उस हिस्से के अतराफ़ व जवानिब (इर्द गिर्द) के बयानात पर भी ग़ौर करे और उनको एक दूसरे के साथ मिला कर उसकी तफ़सीर करे तो मालूम होगा कि उसका मतलब और मक़सद भी तौहीद के सिवा और यकता परस्ती के अलावा कुछ नही है लेकिन बद क़िस्मती से चूँकि बे पर्दा और साफ़ साफ़ बयान हुआ है लिहाज़ा जब ख़ुदा ए वाहिद की तौहीद का नक़्शा जो उपानिशादों में पेश किया गया है उस पर आमयाना सतह पर अमल दर आमद होता है तो बुत परस्ती और मुख़्तलिफ़ ख़ुदाओं पर ऐतेराफ़ व ऐतेकाद के सिवा कुछ भी हासिल नही होता।
पस बहरहाल मा फ़ौकुल आदत और माद्दे के असरार को दुनिया वालों के सामने ब पर्दा बयान नही करना चाहिये बल्कि ऐसे बयानात पर्दे के अंदर बयान करने चाहियें।
3. जबकि दूसरे मज़ाहिब में बाज़ लोग दीन के फ़वायद से महरूम है मसलन औरत, हिन्दू, यहूदी, ईसाई मज़ाहिब में आम तौर पर मुक़द्दस किताबों के मआरिफ़ और तालिमात से महरूम है लेकिन इस्लाम किसी शख़्स या सिन्फ़ के भी मज़हबी फ़वायद से महरुमियत का क़ायल नही है बल्कि ख़ास व आम, मर्द व औरत, सियाह व सफ़ीद, सब के सब मज़हबी इम्तियाज़ात को हासिल कर में मुसावी और बराबर हैं, जैसा कि ख़ुदा वंदे क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाता है:
मैं किसी अमल करने के अमल को ज़ाया नही करता। तुम सब मर्द व औरत एक ही क़िस्म के हो।
(सूरह आले इमरान आयत 195)
ऐ इंसानों, हम ने तुम्हे मर्द व औरत की शक्ल में पैदा किया है और फिर तुम्हे छोटे बड़े गिरोहों और क़बीलों में तक़सीम कर दिया है ताकि एक दूसरे को पहचानों, पस जो शख़्स तुम में से परहेज़ गार होगा ख़ुदा के नज़दीक सब से अज़ीज़ होगा।
(सूरह हुजरात आयत 13)
इस मुक़द्दमे को बयान करने के बाद हम यह कहते है कि क़ुरआने मजीद ने अपनी तालिमात मे सिर्फ़ इंसानियत को मद्दे नज़र रखा है, यानी हर इंसान को इस लिहाज़ से कि वह इंसान है क़ाबिले तरबीयत और क़ाबिले तरक़्क़ी समझा है, लिहाज़ा अपनी तालिमात को इंसानी दुनिया में आम और वसी रखा है।
चूँकि मानवीयात को समझने के लिये ज़हनों में बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ है और जैसा कि ज़ाहिर है कि मआरिफ़े आलिया की तफ़सीर ख़तरे से ख़ाली नही है इसी लिये क़ुरआने मजीद ने अपनी तालिमात को सादा तरीन तरीक़े से जो आम फ़हम है और सादा व आम ज़बान में अवाम तक पहुचा है और बहुत सी सादा ज़बान में बात कही है।
अलबत्ता इस तरीक़े का नतीजा यह होगा कि मआरिफ़े आलिया मानवी सादा और आम ज़बान में बयान हो और अल्फ़ाज़ के ज़ाहिरी मअना और फ़रायज़ वाज़ेह तौर पर महसूस हों और मानवीयात ज़वाहिर के पीछे छुपे हुए हों और पर्दे के पीछे आम फ़हम हों और इसी तरह हर शख़्स अपने शुऊर व फ़हम और अक़्ल के मुताबिक़ उन मानवीयात के मअना से मुस्तफ़ीज़ हों। अल्लाह तआला अपने कलाम में फ़रमाता हैं:
बेशक हमने इस क़ुरआन को अरबी ज़बान में नाज़िल किया है ताकि शायद तुम उसमें ग़ौर व फ़िक्र करो और बेशक यह क़ुरआन हमारे पास उम्मुल किताब (लौहे महफ़ूज़) में हैं। इस क़दर बुलंद मरतबे पर है जहाँ अक़्ले इंसानी नही पहुच सकती। इसकी आयात बहुत मोहकम व पुख़्ता है जिन में इंसाना फ़हम को हरगिज़ दख़ल नही है।
(सूरह ज़ुखरुफ़ आयत 3,4)
फिर एक और मिसाल जो हक़ व बातिल और ज़हनों की गुंजाईश के बारे में लाता है उसमें यूँ फ़रमाता है:
ख़ुदा ने आसमान से पानी नाज़िल फ़रमाया पस यह पानी मुख़्तलिफ़ रास्तों में उनकी गुँजाईश के मुताबिक़ जारी हो गया।
(सूरह राद आयत 17)
और पैग़म्बरे अकरम (स) एक मशहूर हदीसे शरीफ़ में यूँ फ़रमाते हैं:
हम पैग़म्बर लोगों के साथ उनकी अक़्ल के मुताबिक़ बात करते हैं।
इस तरीक़े और बहस से जो दूसरा नतीजा अख़्ज़ किया जा सकता है वह यह है कि क़ुरआने मजीद के ऐसे बयानात जिनमें पोशिदा असरार मख़्फ़ी हों मिसाल का पहलू हासिल कर लेते हैं। यानी ख़ुदाई मआरिफ़ की निस्बत जो इँसानों के फ़हम व शऊर से बाला तर हैं उन के बारे में अमसाल मौजूद हैं जो इन मआरिफ़ को अच्छी तरह समझाने के लिये लाई गई हैं। अल्लाह तआला फ़रमाता है:
और बेशक हम लोगों के लिये इस क़ुरआन में हर क़िस्म की मिसाल लाएँ हैं लेकिन अकसर इँसानों ने इन को क़बूल नही किया और क़ुफ़राने नेमत किया।
(सूरह इसरा आयत 89)
और फिर फ़रमाता है:
और अगरचे हम लोगों के लिये बहुत सी मिसालें लाते हैं लेकिन वह उन में ग़ौर नही करते सिवाए उन लोगों के जो आलिम (समझदार) हैं।
(सूरह अनकबूत आयत 43)
लिहाज़ा क़ुरआने मजीद बहुत सी मिसालों को बयान करता है लेकिन मुनदरजा बाला आयात और जो कुछ इस मज़मून में आया है, काफ़ी है।
नतीजे के तौर पर हमें यूँ कहना चाहिये कि मआरिफ़े आलिया के बारे में जो क़ुरआने के हक़ीक़ी मक़ासिद हैं, मिसालों के ज़रिये बयान किया गया है।