पुस्तक का नामः पश्चताप दया का आलंगन
लेखकः आयतुल्लाह अनसारियान
कुमैल की प्रार्थना मे अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) के कथन के अनुसार, विश्वास करते है कि जिस हृदय मे मारफ़त है वह हृदय एकेश्वरवाद (तौहीद) का प्रतीक है, ज़बान का ज़िक्र करना भीतरी इश्क़ व मोहब्बत पर आधारित है, ईश्वर की लिए अच्छाई ईमानदारी को स्वीकार करना उस समय विनम्र है जब पृथ्वी पर प्रभु के समक्ष प्रार्थना की जाए, ज़बान ईश्वर की एकेश्वरवाद तथा धन्यवाद करने मे व्यस्थ रहे, हृदय ने परमेश्वर की उलुहित को स्वीकार किया है, अंग उत्सुकता के साथ पूजा के स्थानो की ओर बढ़ते है आने वाले कल के समय पुनरूत्थान (क़यामत) मे नरक की आग जलाएगी।
जिन अशीषो का पूजा, आज्ञाकारिता तथा एहसान मे व्यय होता है, आने वाले कल के समय पुनरूत्थान (क़यामत) मे उन अशीषो के क्षितिज से ईश्वर की संतुष्टि के लिए सूर्य एवं प्रकृति के आठ स्वर्ग के अलावा कोई उदय नही होगा।
इस खंड को ध्यान पूवर्क दो महत्वपूर्ण तत्थो पर समाप्त करते है।
1- क़ुरआन के बीते छंदो के संग्रह से यह बात समझ आती है कि पूजा, भृत्यभाव, आज्ञाकारिता तथा सेवा का अर्थ अशीष और उपकार करने वाले की पहचान तथा ईश्वर के बताए हुए मार्ग मे अशीष का उपभोग करना है।
2- गुनाह, पाप, त्रुटि, अनेकदेवाद (शिर्क), नास्तिकता, फ़िस्क़ व फ़जूर, वेश्यावृत्त (फ़ोहशा), स्वीकार न करने का अर्थ उपकार करने वाले से लापरवाही, अशीष के प्रति घमंड करना, सत्य से मुख को मोड़ना तथा अपनी इच्छानुसार (हवा वहवस) एवं तर्कहीन मार्ग मे अशीष का उपभोग करना है।