पुस्तक का नामः पश्चाताप दया की आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला हुसैन अंसारीयान
एक शक्तिशाली सेनापति की ओर से यह वाक्य इस बात का प्रतीबिंबत है कि हुर का स्वयं और अपनी सेना पर कितना नियंत्रण था कि स्वयं भी इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आगे विनम्रता के साथ पेश आया और अपने साथीयो को भी उस काम पर तैयार किया।
हुर का यह साहित्य (अदब), तौफ़ीक़ की एक किरन थी जिसके कारण एक और तौफ़ीक़ प्राप्त हुई, जिस से नफ़्स पर ग़लबा प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन शक्ति मिलेगी और उसको इतना शक्तिशाली बना देगी कि जिस समय क्रांति आए तो और तीस हज़ार सेना के विरूद्ध अपने निर्णय पर अटल रहे और अपनी हैसीयत को बचा कर रखे तथा अपने नफ़्स पर ग़ालिब हो जाए।
हुर के अंदर साहित्य एंव शक्ति के दो ऐसी विशेषताए थी, जो उनमे से प्रत्येक अपने स्थान पर अपने मालिक को दुनिया मे राजा बना देती है, जिसके अंदर यह दोनो विशेषताए पाई जाती हो तो वह शक्ति और साहित्य की दुनिया का मालिक बन जाता है।
यज़ीद रियाही के पुत्र हुर का यह सर्वप्रथम आध्यात्मिक निर्णय था कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ बाजमाअत नमाज पढ़े, और उस सेनापति का नमाज़ मे सम्मिलित होना हाकिम से लापरवाही का एक उदाहरण था।
जारी