पुस्तक का नामः पश्चाताप दया की आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला हुसैन अंसारियान
यह विचार करने के उपरान्त उसने वह चार दिरहम मनसूर को देते हुए कहाः मेरे हक़ मे चार दुआए कर दो, उस समय मनसूर ने प्रश्न किया कि तुम्हारी चार दुआए क्या क्या है बताओ, गुलाम ने कहाः पहली दुआ यह करो कि ईश्वर मुझे गुलामी के जीवन से स्वतंत्र कर दे, दूसरी दुआ यह है कि मेरे मालिक को पश्चाताप की तोफीक़ दे, और तीसरी दुआ यह है कि यह चार दिरहम मुझे वापस प्राप्त हो जाए, और अंतिम दुआ यह है कि मुझे और मेरे मालिक और उसकी बैठक मे आने वालो को क्षमा कर दे।
मनसूर ने यह चार दुआए उस गुलाम के हक़ मे की और वह गुलाम खाली हाथ अपने मालिक के पास चला गया।
उसके मालिक ने कहाः कहां थे? गुलाम ने उत्तर दियाः मैने चार दिरहम देकर चार दुआए खरीदी है, तो उसके मालिक ने प्रश्न किया वह चार दुआए क्या क्या है उनका विस्तार तो कर ? गुलाम ने उत्तर दियाः पहली दुआ यह थी कि मै स्वतंत्र हो जाऊ, मालिक ने कहाः जाओ तुम ईश्वर के मार्ग मे स्वतंत्र हो, उसने कहा दूसरी दुआ यह थी कि मेरे मालिक को पश्चाताप की तौफ़ीक़ हो, उस समय मालिक ने उत्तर दियाः मै पश्चाताप करता हूँ, उसने कहा तीसरी दुआ यह थी कि इन चार दिरहम के बदले मुझे चार दिरहम मिल जाए, यह सुनकर उसके मालिक ने चार दिरहम प्रदान किए, उसने कहा चौथी और अंतिम दुआ यह कि ईश्वर मुझे, मेरे मालिक और उसकी बैठक मे आने वालो को क्षमा कर दे, यह सुनकर उसके मालिक ने कहाः जो मेरे वश मे था मैने उसको पूरा किया, तेरी, मेरी और बैठको मे आने वालो की बख्शिश मेरे वश मे नही है, उसी रात्रि उसने स्वप्न देखा कि एक आवाज़ आई कि हे मेरे बंदे ! तूने अपनी गुरबत के बावजूद अपने कर्तव्य का पालन किया, क्या हम अपनी अथिकृपा के बावजूद अपने कर्तव्य का पालन ना करे, हमने तुझे तेरे गुलाम एंव तेरी बैठक मे उपस्थित सभी लोगो को क्षमा कर दिया।[1]