पुस्तक का नामः पश्चाताप दया की आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला हुसैन अंसारीयान
यज़ीद रियाही का पुत्र हुर आरम्भ मे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ नही था, किन्तु अंतः इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ हो गए, हुर एक जवान और स्वतंत्र मनुष्य था, इस व्यर्थ के वाक्य अलमामूरो माज़ूरुन (अर्थात तैनात व्यक्ति अपंग होता है) पर आस्था नही थी अत्याचारी शासक के आदेश की मुखालेफ़त की और उस से मुक़ाबले के लिए खड़ा हो गया, और दृढ़ निश्चय किया यहा तक कि शहादत प्राप्त हुई।
कूफे मे हुर की गणना यज़ीद की सेना के महान सेनापतिओ मे होती थी तथा अरब के प्रसिद्ध परिवार से उसका समबंध था, कूफे के गवर्नर ने इस अवसर से लाभ उठाया तथा हुर को एक हज़ार सिपाहियो की सेना का सेनापति बना कर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ओर भेज दिया ताकि इमाम को गिरफ़्तार करके कूफ़ा ले आए।
कहा जाता है कि जिस समय हुर को सेना का सेनापति का आदेशपत्र दिया गया तथा इब्ने यज़ीद के दरबार से बाहर निकला, तो उसको एक आवाज़ सुनाई दीः हुर तेरे लिए स्वर्ग की बशारत है, हुर ने पलट कर देखा तो कोई दिखाई नही दिया, उसने स्वयं कहाः यह किस प्रकार की बशारत है? जो व्यक्ति हुसैन से युद्ध के लिए जा रहा हो उसके लिए स्वर्ग की बशारत कैसे ?!
हुर एक विचारक और दक़ीक़ मनुष्य था किसी का अंधा अनुकरण नही करता था वह इस प्रकार का व्यक्ति ना था जो कि पद एंव स्थान के लोभ मे अपने विश्वास (ईमान) को बेच डाले, कुच्छ लोग जितने ऊंचे स्थान पर पहुंच जाते है वह हाकिम की आज्ञाकारिता मे अपनी बुद्धि का ज़र्रा बराबर भी प्रयोग नही करते है, अपने विश्वास को बेच डालते है, और सही से मूल्यांकन नही कर पाते, ऊपर वाले हाकिम जिस को सही कहते है वह भी उसी का समर्थन करते है तथा जिस चीज़ को बुरा कहते है यह भी उसी चीज़ को बुरा कहने लगते है। वह समझते है कि ऊपर वाले हाकिम ख़ता व ग़लती नही करते जो कुच्छ भी कहते है सही होता है, परन्तु हुर इस प्रकार का नही था, वह ग़ौरो फ़िक्र करता था तथा अंधा अनुकरण और बेजा आज्ञाकारिता नही करता था।
जारी