1. वहाबियत के बौद्धिक आधारों का गठन:
वहाबी विचारधारा का प्रचार पूरी तरह से 698 हिजरी में सीरिया में इब्ने तैमिया के माध्यम से अक़ीदों और धार्मिक विश्वास में भारी विचलन और इस्लामी समुदायों के कुफ्र व शिर्क की अभिपुष्टि के आधार पर शुरू हुआ जिसे अहले सुन्नत और शिया उलमा के भारी विरोध का सामना करना पड़ा। इब्ने तैमिया ने 727 हिजरी में दमिश्क की एक जेल में मौत पाई उसकी मौत के साथ ही उसकी विचारधारा भी दफन हो गई। 1157 हिजरी में मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने दरइया के शासक मोहम्मद बिन सऊद के सहयोग से नज्द क्षेत्र में नए सिरे से इब्ने तैमिया की ग़लत विचारधारा को जीवित किया जिसके नतीजे में सख्त व ख़ूनी लड़ाईयां हुईं और वहाबियों ने फ़ार्स की खाड़ी तटों और हिजाज़ के सभी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। वहाबियत की चूलें मजबूत करने में साम्राज्यवादियों और खासकर ब्रिटेन का बहुत बड़ा हाथ रहा इसलिए जब अब्दुल अजीज बिन अब्दुल रहमान 1319 हिजरी में कुवैत से सऊदी वापस पलटा और वहाबी पंथ के बचे अनुयायियों और ब्रिटेन व फ्रांस की अंधाधुंध व बेलगाम सहायता से बीस साल के संघर्ष के बाद फिर से हिजाज़ पर कब्जा कर लिया। तो हेजाज़ का नाम सऊदी में बदल कर आले सऊद सरकार की स्थापना की और यह व्यक्ति 54 साल शासन करने के बाद अनंततः 1373 हिजरी में मरा, तब से लेकर अब तक उसी का वंश इस देश पर शासन कर रहा है।
2. अब्दुल अज़ीज़ के हिजाज़ पर क़ब्ज़े की कहानी
अब्दुल अजीज बिन अब्दुल रहमान आले सऊद 1880 में पैदा हुआ, रियाज के शासक (रशीद) की सख़्तियों से तंग आकर जवानी में अपने परिवार के साथ अपने जन्म स्थान रियाज को छोड़ कर कुवैत चला गया जिसे रशीद ने अपने वर्चस्व में ले लिया था। दिसंबर 1901 ई. इक्कीस साल की उम्र में अपने चालीस के करीब समर्थकों के साथ नज्द पर क़ब्ज़ा करने के इरादे से रियाज वापस पलटा। 1902 के शुरू में रियाज को अपने नियंत्रण में ले लिया और अन्य क्षेत्रों को रशीद की पहुंच से दूर रखने में लग गया। 1904 में उस्मानी फौजियों की रशीद के समर्थन के बावजूद 1322 हिजरी में नज्द पर कब्जे करने में मयाब हो गया और फिर 1906 में रशीद की मौत से अब्दुल अजीज़ के लिए रास्ता खुल गया, धीरे धीरे रशीद की हुकूमत के सभी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। और 1913 ई. में अहसा क्षेत्र भी अपनी सरकार में शामल कर के फ़ार्स की खाड़ी के तठीय क्षेत्रों तक पहुंच गया।
ब्रिटिश सरकार ने जो उस्मानियों को अरब क्षेत्रों से दूर और खुद उन पर कब्जा करने की कोशिश कर रही थी, 1916 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान नज्द और अहसा पर अब्दुल अज़ीज़ की सरकार को औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया। अब्दुल अज़ीज़ ने 1925 में शरीफे मक्का और ब्रिटिश सरकार के बीच मतभेद का लाभ उठाते हुए हिजाज़ को अपनी हुकूमत का हिस्सा बनाते हुए खुद को नज्द और हिजाज़ के सुल्तान के रूप में पेश कर दिया। सात जनवरी 1925 को अपने राज्य का नाम सऊदी रख दिया। 1927 में ब्रिटेन सरकार ने जेद्दा समझौते के तहत प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जो क्षेत्र उस्मानियों के पास था उसे सऊदी सरकार का हिस्सा घोषित कर दिया।
हालांकि सऊदी सरकार की औपचारिक रूप से घोषणा 23 सितंबर 1932 ई में हुई। आठ शव्वाल 1344 हिजरी अर्थात 1926 में आले सऊद ने जन्नतुल बक़ीअ को ध्वस्त और वीरान कर दिया। जो भी वहाबियत के अत्याचार हैं आप सभी जानते हैं, यह वहाबियत यूं ही नहीं फैली बल्कि उसके पीछे पूरा षड़यंत्र रचा गया वरना मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब को तो शुरू में ही कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था। जैसा कि किताबों में मिलता है मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब अपने प्रचार की शुरुआत में बसरा गया और वहां पर उसने अपनी विचारधारा बयान की तो बसरा के बुज़ुर्ग लोगों की ओर से कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। डॉक्टर मुनीर अजलानी लिखते हैं:
وتجمع علیہ اناس فی البصرة من رئوساء ھا وغیرھم بآذوہ اشدالاذی واخرجو ہ منھا
बसरा के रईस व अन्य बड़ी हस्तियां और जनता उसके खिलाफ उठ खड़ी हुई और उसे शहर से बाहर का रास्ता दिखाया। वहां से निकलने के बाद अब्दुल वह्हाब ने बग़दाद, कुर्दिस्तान, हमदान और इस्फ़हान की राह ली। और अनंततः अपने जन्म स्थान पर वापस पलट गया, वह अपने पिता की ज़िंदगी में अपनी विचारधारा के अभिव्यक्ति की हिम्मत नहीं जुटा पाता था लेकिन 1153 हिजरी में पिता की मौत के बाद उसने अपनी विचारधारा के अभिव्यक्ति के लिए जब माहौल को अनुकूल पाया तो लोगों को अपने नए सम्प्रदाय की ओर आमंत्रित किया। लेकिन लोगों का विरोध इतना बढ़ा कि सम्भव था उसे मार दिया जाए, मार दिए जाने के डर के मद्देनजर अपने जन्म स्थान पलटने पर मजबूर हुआ और वहां पहुंच कर वहां के शासक उस्मान बिन मुअम्मर से सांठ गांठ की कि दोनों एक दूसरे के सहायक बन कर रहें सो उसकी छत्र छाया में धड़ल्ले से खुलेआम अपने विचारों का प्रचार करने लगा लेकिन ज्यादा समय नहीं बीता कि शासक ने अहसा के राजा के आदेश पर उसे शहर से निकाल दिया।
मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने मजबूर होकर दरइया को अपना ठिकाना बना लिया और दरइया के शासक मुहम्मद बिन सऊद के साथ समझौता किया कि सरकार मुहम्मद बिन सऊद की होगी और धर्म के प्रचार की ज़िम्मेदारी मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के हाथ में रहेगी।
3. 4 सहाबा और ख़लीफ़ा-ए-सानी के भाई की क़ब्रों का विध्वंस
सबसे पहला काम जो मुहम्मद बिन अबदुल वह्हाब ने अंजाम दिया वह अईना के आसपास स्थिति सहाबा और वलियों की क़ब्रों को गिराना था। उसकी इस विनाशकारी और विध्वंस कार्यवाही का एक निशाना खलीफा-ए-सानी के भाई ज़ैद इब्ने खत्ताब की कब्र भी थी। जिसके विध्वंस पर उसे गंभीर प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा और फिर अईवा के शासक ने मजबूरन उसे शहर से निकाल दिया। बारहवीं शताब्दी में मुसलमानों को बहुत ही अनुचित और सख़्त हालात का सामना था, इस्लामी देश चारों ओर से साम्राज्यवादी शक्तियों के हमलों का शिकार बने हुए थे और इस्लामी सीमाओं को ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और अमेरिका की ओर से ख़तरा था, ऐसे समय में जब मुसलमानों को साझा दुश्मन के मुक़ाबले में एकता और गठबंधन की बहुत ज़्यादा जरूरत थी, अफसोस कि मुहम्मद बिन अबेदुल वह्हाब ने मुसलमानों को नबियों और वलियों से सम्पर्क बनाने के अपराध में मुशरिक और बुतपरस्त बता करा उनके कुफ़्र का फतवा दे दिया, उनका खून हलाल, हत्या जाएज़ और उनकी संपत्ति को युद्ध में लूट हुए माल के समान बताया। उसके अनुयायियों ने इस फतवे का पालन करते हुए हजारों निर्दोष मुसलमानों को खून में लतपथ कर दिया।
4. सुन्नी उल्मा का मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के साथ व्यवहार
मक्का के मुफ़्ती आज़म अहमद ज़ैनी दहलान लिखते हैं:
فاخذ عن کثیر من علماء المدینہ منھم الشیخ محمد بن سلیمان الکردی الشافعی والشیخ محمد حیاة السندی الحنفی وکان الشیخان المذکوران وغیر ھما من اشیاخہ یتفرسون فیہ الالحادوالضلال، ویقولون :سیضل ھذا ، ویضل اللہ بہ من ابعد ہ واشقاہ ، وکان الامر کذلک ، وما اخطات فراسھم فیہ)
मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने मदीना के बहुत सारे उल्मा जैसे शेख मोहम्मद सुलेमान कुर्दी शाफ़ेई और शेख मोहम्मद हयात सनदी हनफ़ी से पढ़ा, यह दोनों शिक्षक शुरुआत से ही उसके अंदर बेदीनी और गुमराही के लक्षण देख रहे थे और कहा करते थे कि यह गुमराह हो जाएगा और इसके हाथों बबुत से लोग भी गुमराह होंगे उनकी यह भविष्यवाणी सही साबित हुई।
5. मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब की गुमराही पर उसके पिता की प्रक्रिया
अहमद ज़ैनी दहलान लिखते हैं:
وکان والدہ عبدالوھاب من العلماء الصالحین فکان ایضا یتفرس فی ولدہ المذکور الالحادویذمہ کثیراویحذرالنا س منہ).
मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के पिता सम्भंध उल्मा में से से था जिन्होंने दूसरे उल्मा की तरह अपने बेटे में नास्तिकता और बेदीनी की निशानियों को महसूस किया और उसकी निंदा भी की और लोगों को उससे दूर रहने की ताकीद भी की।
6. मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के भाई का कड़ा रवैया
अहमद ज़ैनी दहलान लिखते हैं:
وکذا اخوہ سلیمان بن عبد الوھاب فکان ینکر مااحد ثہ من البدع والضلال والعقائد الذائغة ، وتقدم انہ الف کتابا فی الردعلیہ.
मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के बड़े भाई सुलैमान भी उसकी बिदअतों, गुमराहियों और भटके हुए विश्वासों पर सवाल उठाए और उन्होंने अपने भाई के विचारों की प्रतिक्रिया में एक किताब भी लिखी। दूसरे स्थान पर ज़ैनी दहलान लिखते हैं:
کان محمد بن عبد الوھاب الذی ابتدع ھذہ البد عة یخطب للجمعة فی مسجد الدرعیة ویقول فی کل خطبة :ومن توسل بالنبی فقد کفر ، وکان اخوہ الشیخ سلیمان بن عبد الوھاب من اھل العلم فکان ینکر علیہ انکارا شدید ا فی کل مایفعلہ ، او یامربہ ولم یتبعہ فی شئی مما ابتدا عہ،وقال لہ اخوہ سلیمان یوما : کم ارکان الاسلام یامحمد بن عبدا لوھاب ؟!فقال : خمسة ، فقال :انت جعلتھا ستة ، السادس من لم یتبعک فلیس بمسلم ، ھذا عندک رکن سادس للاسلام ۔
मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब दरइया में जुमे की नमाज़ का ख़ुत्बा (प्रवचन) दिया करता था और हर बार ख़ुत्बे में कहा करता: पैग़म्बर स. को वसीला (माध्यम) बनाना कुफ्र है, उसके भाई शेख सुलेमान भी विद्वानों में से थे जो उसकी बातों को पूरी तरह से अस्वीकार करते और उसकी बिदअतों में से किसी एक में भी उसका अनुसरण न करते। एक दिन सुलैमान ने अपने भाई मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब से पूछा कि इस्लाम के मूल स्तम्भ कितने हैं? तो मोहम्मद बिन अबदुल वह्हाब ने कहा पांच, तब सुलैमान ने कहा: तूने तो छः बना रखे हैं और छठा यह कि जो तेरा अनुसरण न करे वह मुसलमान ही नहीं। ٤۔محمد بن 7. मोहमम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के भाई का अपनी हत्या से भयभीत होना
अहमद ज़ैनी दहलान लिखते हैं:
ولما طال النزاع بینہ وبین اخیہ خاف اخوہ ان یامر بقتلہ فارتحل الی المدینہ المنورة والّف رسالة فی الرد علیہ وارسلھا لہ فلم ینتہ والّف کثیر من علماء الحنابلة وغیر ھم رسائل فی الرد علیہ وارسلوھا لہ فلم ینتہ
जब सुलैमान और उनके भाई मोहम्मद बिन वह्हाब के बीच मतभेद बढ़ता गया तो सुलैमान इस डर से मदीना चले गए कि कहीं उनका अपना ही भाई उनकी हत्या का आदेश न दे दे और मदीना में उन्होंने मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब की प्रतिक्रिया में एक किताब लिखी और उसे भेज दिया, साथ ही बहुत से हम्बली तथा ग़ैर हम्बली उल्मा ने भी उसकी प्रतिक्रिया में लेख लिखे और उसे उसके पास भिजवाए लेकिन मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के हाल पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह जैसा था वैसा ही रहा।
source : abna24