जब इंसान अपने दिल में झाँक कर देखता है तो महसूस करता है कि उसकी कोई चीज़ खोई हुई है जिसकी उसे तलाश है, और चूँकि वह अपनी खोई हुई चीज़ के बारे मे सही से नही जानता इस लिए उसको हर जगह और हर चीज़ में तलाश करने की कोशिश करता है।
वह कभी तो यह सोचता है कि मेरी खोई हुई असली चीज़ मालो दौलत है, लिहाज़ा अगर इसको जमा कर लिया जाये तो दुनिया का सब से ख़ुश क़िस्मत इंसान बन जाउँगा। लोकिन जब वह एक बड़ी तादाद में दौलत जमा कर लेता है तो एक रोज़ इस तरफ़ मुतवज्जेह होता है कि लालची लोगों की निगाहें, चापलूस लोगों की ज़बानें, चोरों के संगीन जाल और हासिद लोगों की ज़ख़्मी कर देने वाली ज़बानें उसकी ताक में हैं।और कभी कभी तो ऐसा होता है कि उस माल की हिफ़ाज़ उस को हासिल करने से ज़्यादा मुश्किल हो जाती है जिस से इज़तराब में इज़ाफ़ा हो जाता है। तब वह समझता है कि मैनें ग़लती की है, मेरी खोई हुई असली चीज़ मालो दौलत नही है।
कभी वह यह सोचता है कि अगर एक ख़ूबसूरत और माल दार बीवी मिल जाये तो मेरी ख़ुशहाली में कोई कमी बाक़ी नही रहेगी। लेकिन उस को हासिल कर ने के बाद जब उसके सामने उसकी हिफ़ाज़त, और ला महदूद तमन्नाओं को पूरा करने का मसला आता है तो उस की आँख़े खुल रह जाती हैं और वह समझता है कि उसने जो सोचा था वह तो सिर्फ़ एक ख़वाब था।
शोहरत व मक़ाम, का मंज़र इन सबसे ज़्यादा लुभावना है इनके ज़रिये खुश हाल बनने का ख़्याल कुछ ज़्यादा ही पाया जाता है जबकि हक़ीक़त यह है कि मक़ाम हासिल करने के बाद उसकी मुश्किलात, सर दर्दीयों ,ज़िम्मेदारियोँ में (चाहें वह इंसानों के लिए जवाब देह हो या अल्लाह के सामने) इज़ाफ़ा हो जाता है।
पाको पाकीज़ा आलिमे दीन मरहूम आयतुल्लाहि अल उज़मा बरूजर्दी जो कि जहाने तशय्यु के मरजाए अलल इतलाक़ और अपने ज़माने के बे नज़ीर आलम थे जब उन्होंने मक़ामो शोहरत की मुशकिलों को महसूस किया तो फ़रमाया कि “ अगर कोई रिज़ायत खुदा के लिए नही, बल्कि हवाए नफ़्स की ख़ातिर इस मक़ामों मंज़िल को हासिल करने की कोशिश करे जिस पर मैं हूँ तो उसके कम अक़्ल होने के बारे में शक न करना। ”
यह तमाम मक़ामात सराब की तरह हैं जब इंसान इन तक पहुँचता है तो न सिर्फ़ यह कि, उसकी प्यास नही बुझती बल्कि वह इस ज़िन्दगी के बयाबान में और ज़्यादा प्यासा भटकने लगता है। क़ुरआने करीम इस बारे में क्या ख़ूब बयान फ़रमाता है “कसराबिन बक़ीअतिन यहसबुहु अज़्ज़मानु माअन हत्ता इज़ा जाअहु लम यजिदहु शैयन..... ”(वह सराब की तरह है कि प्यासा उसको दूर से तो पानी ख़याल करता है लेकिन जब उसके क़रीब पहुँचता है तो कुछ भी नही पाता)
क्या यह बात मुमकिन है कि हिकमते ख़िल्क़त के तहत तो इंसान के वुजूद में किसी चीज़ के गुम होने के एहसास को तो रख दिया गया हो, लेकिन उस गुम हुई चीज़ के मिलने कोई ठिकाना न हो ? बे शक प्यास पानी के वजूद के बग़ैर अल्लाह की हिकमत में ठीक उसी तरह ग़ैर मुमकिन है जिस तरह प्यास के बग़ैर पानी का वुजूद बे माअना है !
मगर होशियार इंसान आहिस्ता आहिस्ता समझ जाते हैं कि उनकी वह खोई हुई चीज़ जिसकी तलाश में वह चारो तरफ भटक रहे हैं और नही मिल रही है वह तो हमेशा से उनके साथ है, उनके पूरे वजूद पर छायी हुई है और उनकी रगे गर्दन से भी ज़्यादा क़रीब है। बस उन्होंने कभी उसकी तरफ़ तवज्जोह नही दी है। “ व नहनु अक़रबु इलैहि मिन हबलिल वरीदि ”हाफ़िज़ शीराज़ी ने क्या खूब कहा है कि –
सालहा दिल तलबे जामे जम अज़ मा मी कर्ज।
आनचे ख़ुद दाश्त अज़ बेगाने तमन्ना मी कर्द।।
गौहरी के अज़ सदफ़े कोनो मकाँ बीरून बूद।
तलब अज़ गुमशुदेगाने लबे दरिया मी कर्द।।
और सादी ने भी क्या खूब कहा है कि-
ईन सुख़न बा के तवान गुफ़्त के दोस्त।
दर किनारे मन व मन महजूरम !
हाँ इंसान की खोई हुई चीज़ हर जगह और हर ज़माने में उसके साथ है लेकिन हिजाब (पर्दे) उसको देखने की इजाज़त नही देते, क्योँ कि इंसान तबीअत के पंजो में जकड़ा हुआ लिहाज़ वह उसे हक़ीक़त जान ने से दूर रखती हैं।
तू के अज़ सराई तबीअत नमा रवी बीरून।
कुजा बे कूई हक़ीक़त गुज़र तवानी कर्द ?!।।
ऐ अज़ीज़म तुम्हारी खोई हुई चीज़ तुम्हारे पास है , बस अपने सामने से हिजाब को हटाने की कोशिश करो ताकि दिल के हुस्ने आरा को देख सको, आप की रूहो जान उस से सेराब हो सके,