पुस्तक का नामः पश्चाताप दया की आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला हुसैन अंसारियान
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैः पैगम्बर किसी जंग के लिए जा रहे थे, एक स्थान पर अपने असहाब (साथीयो) से कहाः रास्ते मे एक व्यक्ति मिलेगा, जिसने तीन दिन से शैतान के विरूद्ध दृढ़ निश्चय कर रखा है, अभी थोड़ी ही दूर चले थे कि बयाबान मे एक व्यक्ति को देखा, उसका मांस हड्डियो से चिपका हुआ था, उसके नेत्र धसे हुए थे, उसके होंट जंगल की घास खाने के कारण हरे हो चुके थे, जैसे ही वह व्यक्ति आगे आया उसने पैगम्बर के बारे मे प्रश्न किया, असहाब ने रसूल का परिचय करवाया तो उस व्यक्ति ने पैगम्बर से इस्लामी शिक्षा देने का आवेदन किया, तो पैगम्बर ने कहाः कहोः अश्हदोअन लाएलाहा इललल्लाह, वअन्नी रसूलुल्लाह ( मै साक्षी हूँ कि उसके अलावा कोई ईश्वर नही है, और मै (अर्थात पैगम्बर) अल्लाह का रसूल हूँ। उसने दोनो शहादतो को स्वीकार किया, पैगम्बर ने कहाः पांचो समय नमाज़ पढ़ना, रमज़ान मास मे रोज़े (वृत) रखना, उसने उत्तर दियाः मैने स्वीकार किया, पैगम्बर ने कहाः हज करना, ज़कात का भुगतान करना और ग़ुस्ले जनाबत[1] करना, उसने उत्तर दियाः मुझे स्वीकार है।
उसके पश्चात आगे बढ गए वह भी साथ था किन्तु उसका ऊंट पीछे रह गया, पैगम्बर रुक गए तथा असहाब उसकी खोज मे निकल गए, लश्कर के अंत मे देखा कि उसके ऊंट का पैर जंगली चूहे के बिल मे फंस गया है उसकी और उसके ऊंट की गर्दन टूट गई है तथा दोनो की मृत्यु हो गई है यह समाचार पैगम्बर तक पहुँचा।
जैसे ही यह समाचार पैगम्बर को मिला फ़ोरन आदेश दिया एक तम्बू लगाया जाए और उसको ग़ुस्ल दिया जाए, ग़ुस्ल के पश्चात पैगम्बर ने तम्बू मे जाकर स्वंय उसको कफ़न पहनाकर बाहर आए पैगम्बर के ललाट से पसीना टपक रहा था, असहाब से कहाः यह देहाती व्यक्ति दुनिया से भूखा गया है, यह व्यक्ति वह था जो इमान लाया और उसने इमान लाने के पश्चात किसी पर कोई अत्याचार नही किया, स्वंय को पापो से लिप्त नही किया, स्वर्ग की दासिया स्वर्गीफलो के साथ इसकी ओर आई तथा फलो से इसका मुह भर दिया, उनमे से एक स्वर्गी दासी कहती थीः हे अल्लाह के दूत! मुझे इसकी पत्नि बना दीजिए, दूसरी कहती थीः मुझे इसकी पत्नि बना दीजिए![2]