पुस्तक का नामः पश्चाताप दया की आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला हुसैन अंसारियान
शक़ीक़ एक धनवान व्यक्ति का पुत्र था, वह व्यापार तथा सेर सपाटे के लिए रोम के शहरो की यात्रा करता था, एक बार वह रोम के किसी शहर मे मूर्तिपूजको का एक कार्यक्रम देखने के लिए मुर्ति गृह गया, देखता है कि मूर्ति गृह का एक सेवक अपना सर मुंडवाए हुए तथा अरग़वानी वस्त्र पहने हुए सेवा कर रहा है, उस से कहाः तेरा ईश्वर ज्ञानी हिकमत वाला तथा जीवित है, उसकी अर्चना कर, और इन बेजान मूर्तियो की अर्चना करना त्याग दे क्योकि यह कोई लाभ अथवा हानि नही पहुँचाते, उस सेवक ने उत्तर दियाः यदि मनुष्य का ईश्वर जीवित एंव ज्ञान वाला है तो वह इस बात की भी शक्ति रखता है कि वह तुझे तेरे शहर मे जीविका प्रदान कर सके, तो फ़िर तू यहा धन समपत्ति प्राप्त करने हेतु यहा आया है तथा यहा पर अपने समय और धन का व्यय करता है
शक़ीक़ साधु की बातो को सुनकर ख़ाबे ग़फ़लत से जागे तथा दुनिया परसती से किनारा कर लिया, पश्चाताप की, इसीलिए इसकी गणना जमाने के बड़े सूफी सन्तो मे होने लगी।
कहते हैः कि मैने पांच वस्तुओ से समबंधित 700 विद्वानो से प्रश्न किया सभी ने दुनिया की आलोचना के बारे मे बतायाः मैने प्रश्न किया कि बुद्धिमान कौन है? उत्तर दियाः जो व्यक्ति दुनिया का आशिक़ ना हो, मैने प्रश्न कियाः चतुर कौन है? उत्तर दियाः जो व्यक्ति दुनिया की समपत्ति पर घमंड ना करे, मैने प्रश्न कियाः धनि कौन है? उत्तर दियाः जो व्यक्ति ईश्वर के प्रदान किए पर प्रसन्न हो, मैने प्रश्न कियाः नादार (फ़क़ीर) कौन है? उत्तर दियाः जो व्यक्ति अधिक तलब करे मैने प्रश्न कियाः कन्जूस कौन है? तो सबने कहाः जो व्यक्ति ईश्वर के हक़ को गरीबो तथा जरूरतमंदो तक ना पहुँचाए।[1]