पुस्तक का नामः पश्चाताप दया की आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला हुसैन अंसारियान
सज्जन पुरूष अबू उमर ज़जाजी कहते हैः मेरी माता का स्वर्गवास हो गया उनकी वीरासत से मुझे एक घर प्राप्त हुआ, मै उस घर को बेचकर हज के लिए चल पड़ा, जिस समय मै नैनवा नामी धरती पर पहुंचा तो एक चोर सामने आकर मुझ से कहता हैः कि तुम्हारे पास क्या है?
मेरे हृदय मे विचार आया कि सत्य एक पसंदीदा वस्तु है, और जिसका ईश्वर ने आदेश दिया है, अच्छा है कि इस चोर से भी हक़ीक़त और सच्चाई से बात करूं, इसीलिए मैने कहाः मेरी थैली मे पचास दीनार से अधिक नही है, यह सुनकर उस चोर ने कहाः लाओ वह थैली मुझे दे दो, मैने वह थैली उस चोर को दे दी चोर ने भी उन दीनारो की गणना करने के पश्चात मुझे वापस लौटा दी, मैने उस से कहाः क्यो क्या हुआ? चोर ने उत्तर दियाः मै तुम्हारे पैसे ले जाना चाहता था, किन्तु तुम मुझे ले चले, उसके ललाट पर शर्मिंदगी और प्राश्चताप के प्रभाव प्रकट थे जिससे यह स्पष्ट हो रहा था कि उसने अपने अतीत से पश्चाताप कर ली है अपनी सवारी से पैदल होकर उसने मुझ से सवार होने का आग्रह किया, मैने उत्तर दियाः कि मुझे सवारी की कोई आवश्यकता नही है, परन्तु उसने ज़ोर दिया, इस कारण मै सवार हो गया और वह मेरे पीछे पीछे पैदल चल दिया, मीक़ात[1] पहुंचकर अहराम बांधा और मस्जिदुल एहराम[2] की और चल पड़े, उसने हज के सम्पूर्ण आमाल मेरे साथ किए और उसी स्थान पर इस संसार से प्रलोक की ओर प्रस्थान कर गया।[3]