पुस्तक का नामः पश्चाताप दया की आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला हुसैन अंसारियान
इस लेख से पूर्व हमने तीन व्यक्तियो की यात्रा के समबंध मे उल्लेख किया था कि वह तीनो एक पहाड़ की गूफा मे पहुच गए और ऊपर से एक पत्थर लुढक कर गूफा के द्वार पर आ लगा उन तीनो को कोई रास्ता दिखाई नही देता था विचार करने के पश्चात इस परिणाम तक पहुंचे कि भगवान से प्रार्थना की जाए तो इस समस्या का कोई समाधान निकले इसलिए उनमे से पहले व्यक्ति ने अपनी एक घटना का उल्लेख करते हुए भगवान से प्रार्थना कि जिस के कारण वह पत्थर थोडा सा खिसक गया। इस लेख मे दूसरे दो व्यक्तियो ने जो प्रार्थनाए की जिसके कारण उन तीनो को वहा से निताज मिली उसका वर्णन किया गया है।
दूसरे ने कहाः हे पालनहार! तू जानता है एक दिन मै खेतो मे काम कराने के लिए आधा दिरहम मज़दूरी तय करके मज़दूर लाया, सूर्यास्त के समय एक ने कहाः मैने दो मज़दूरो के बराबर काम किया है इसलिए मुझे एक दिरहम दो, मैने नही दिया, वह मुझ से नाराज़ होकर चला गया, मैने उस आधे दिरहम का बीज ज़मीन मे डाल दिया, उस वर्ष मुझे अधिक लाभ हुआ, एक दिन उस मज़दूर ने आकर अपनी मज़दूरी मांगी तो मैने उसको 18000 दिरहम दिए जो मैने उस कृषि से प्राप्त किए थे तथा कई वर्षो तक उनको रखे हुए था और यह कार्य मैने तेरी खुशी के लिए किया था, तुझे उसी काम का वास्ता हम को निजात दे दे उसने यह प्रार्थना की तो वह पत्थर थोड़ा और खिसक गया।
तीसरे ने कहाः हे पालनहार! तू भलि प्रकार इस बात से अवगत है कि एक दिन मेरे माता पिता सो रहे थे मै उनके लिए एक पात्र मे दूध लेकर गया मैने विचार किया कि यदि मै यह पात्र ज़मीन पर रख दूं तो कहीं माता पिता वजाग न जाए तथा मैने स्वयं उनको नही जगाया बल्कि वह दूध का पात्र लेकर खड़ा रहा ताकि वह स्वयं जाग जाए, हे पालनहार तू भलि प्रकार जानता है कि मैने वह काम केवल तेरी खुशी के लिए किया था, पालनहार तुझे इसी काम का वास्ता हमे इस मुसीबत से निताज प्रदान कर, उस तीसरे व्यक्ति की प्रार्थना से वह पत्थर और खसका और वह तीनो व्यक्ति गूफा से बाहर निकल आए।[1]