पुस्तक का नामः पश्चाताप दया की आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला हुसैन अंसारीयान
हुर, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ओर, अपने हाथो को सर पर रखे हुए कहते चले जा रहे थेः हे पालनहार! तेरे दरबार मे पश्चाताप करते हुए उपस्थित हो रहा हूँ मेरी पश्चाताप स्वीकार कर क्योकि मैने तेरे औलिया और तेरे दूत की संतान को पीडा दी है।
तिबरि का कथन है किः जैसे ही हुर नजदीक हुआ, तथा उसको पहचान लिया गया, उसने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को सलाम करके कहाः हे रसूल के पुत्रः भगवान मुझे आप पर निछावर करे, मैने आपका मार्ग बंद किया और आपको वापस लौटने नही दिया, आपके साथ साथ चलता रहा, ताकि आप किसी सुरक्षित स्थान पर शरण ना ले लैं, मैने आप पर सख्ती की और आप को कर्बला मे रोक लिया, और यहा पर भी आप के ऊपर सख्ती की गई, परन्तु उस ईश्वर की सौगंध जिसके अलावा कोई दूसरा ईश्वर नही है, मुझे इस बात को बोध नही था कि यह क़ौम आपकी बातो को स्वीकार नही करेगी तथा आप के साथ युद्ध करने के लिए तैयार हो जाएगी।
आरम्भ मे यह विचार करता था कि कोई बात नही है, इन लोगो के साथ षडयंत्र से काम लेता रहूं ताकि कहीं यह ना समझे कि वह उनका विरोधी होता जा रहा है, लेकिन यदि ईश्वर की सौगंध मुझे इस बात का बोध होता कि यह लोग आपकी बातो को स्वीकार नही करेंगे तो मै आपके साथ इस प्रकार का व्यवहार ना करता, अब मै आपकी सेवा मे पश्चाताप करते हुए अपने प्राणो को निछावर करने हेतु उपस्थित हुआ हूँ, ताकि ईश्वर के दरबार मे पश्चाताप करूं और अपने प्राण आप पर निछावर करूँ। मै आप के ऊपर निछावर होना चाहता हूँ, क्या मेरी पश्चाताप स्वीकार हो सकती है!?
उस समय इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कहाः हां ईश्वर पश्चाताप स्वीकार करने वाला है, तेरी पश्चाताप को स्वीकार कर लेगा तथा तुझे क्षमा कर देगा, तेरा नाम क्या है? उसने उत्तर दियाः यज़ीद रियाही का पुत्र हुर, इमाम अलैहिस्सलाम ने कहाः
हुर जैसा कि तुम्हारी माता ने तुम्हारे नाम का नामाकरण किया है तुम लोक एंव परलोक दोनो मे ही हुर (स्वतंत्र) हो।[1]