पुस्तक का नामः पश्चाताप दया की आलंग्न
लेखकः आयतुल्ला हुसैन अंसारीयान
यह लोग काफ़ी देर तक कोई उत्तर नही दे सके, बीती घटना को याद करने लगे, अज़ीज़े मिस्र से सुनी हुई बाते उनके दिमाग मे चक्कर लगा रही थी कि अचानक सबने एक साथ मिलकर प्रश्न कियाः क्या तुम ही युसुफ़ हो?
अज़ीज़े मिस्र ने उत्तर दियाः हा, मै ही युसुफ़ हूं और यह मेरा भाई (बिनयामीन) है, ईश्वर ने हम पर दया और कृपा की एक लम्बे समय पश्चात दो बिछड़े हुए भाईयो को मिला दिया, जो व्यक्ति भी धैर्य रखता है तो ईश्वर उसको अच्छे इनाम से सम्मानित करता है तथा उसको उसके लक्ष्य तक पहुचां देता है।
उधर भाईयो के हृदयो मे एक विचित्र भय और दहशत थी और युसुफ़ की ओर से भयंकर प्रतिशोध को अपनी नज़रो के सामने सन्निहित देख रहे थे।
हज़रत युसुफ़ की असीम शक्ति, तथा भाईयो की अपार कमज़ोरी जब ये दो असीम शक्ति एंव दुर्लबता एक स्थान मे एकत्रित हो जाए तो क्या कुच्छ नही हो सकता ?!!
भाईयो ने इब्राहीमी क़ानून अनुसार स्वयं को सजा के योग्य देखा, प्रेम और उतूफ़त की नज़र से स्वयं को युसुफ़ की यातना का हक़दार माना, उस समय उनकी स्थिति ऐसी थी जैसे उनपर आकाश गिरने वाला हो, उनके शरीर कांप रहे थे, जबान बंद हो चुकी थी, किन्तु उन्होने साहस नही छोड़ा था अपनी शक्ति को एकत्रित किया तथा अपना अंतिम संरक्षण इन शब्दो मे करने लगेः “हम अपने पाप को स्वीकार करते है लेकिन आप से क्षमा एंव दया की विनती करते है, निसंदेह ईश्वर ने आप को हमारे ऊपर फ़ज़ीलत दी है, हम लोग खताकार है”। यह कहकर शांत हो गए, लेकिन हज़रत युसुफ़ की जबान से भी ऐसे शब्द निकले जिसकी उन्हे बिलकुल भी आशा नही थी।
जारी