मिस्र के सुंदर शहर शरमुश्शैख़ में शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ जहां सऊदी अरब, इराक़, कुवैत, ट्यूनीशिया, फ़िलिस्तीन, बहरैन, सूमालिया, जिबूती और लीबिया तथा मेज़बान मिस्र के नेताओं ने भाग लिया। लेबनान और मोरक्को ने अपने प्रधानमंत्रियों को इस सम्मेलन में भेजा, कुछ देशों ने अपने विदेश मंत्री और संसद सभापति भेजे, क़तर ने तो केवल अपने राजदूत को भेजा दिया।
मगर यूरोपीय देशों की बात की जाए तो 27 देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों ने इसमें भाग लिया। इसका मतलब साफ़ है कि यूरोपीय देश इस सम्मेलन में केवल मौसम का हाल जानने नहीं आए थे बल्कि हर देश अपने ख़ास एजेंडे के साथ मिस्र के इस शहर में पहुंचा था।
इससे पता चल गया कि यह अरब यूरोप शिखर सम्मेलन होने के बजाए यूरोपीय देशों का शिखर सम्मेलन बनकर रह गया। यूरोपीय देशों ने सम्मेलन के स्तर पर भी और द्विपक्षीय मुलाक़ातों के स्तर पर भी अपने अपने एजेंडे के अनुसार काम किया लेकिन अरब देश आपस में एक दूसरे से टकराते और एक दूसरे को नीचा दिखाते नज़र आए। यह पूरा सम्मेलन यूरोपीय हितों का मैदान बन गया।
अरब देशों की समस्या यही है कि वह अलग अलग बहानों और नामों से एकत्रित तो हो जाते हैं लेकिन आपसी मतभेदों में वह इतना उलझे हुए है कि उनसे बाहर ही नहीं निकल पाते। अरब देश बस इस बात पर ख़ुश हो जाते हैं कि वह एक स्थान पर बड़ी संख्या में एकत्रित हो गए हैं और उन्होंने अपनी अपनी बात कह ली है।
यूरोपीय देशों को देखा जाए तो यह बात साफ़ नज़र आती है कि अमरीका से अलग अलग नीतियों पर गहरे मतभेद हो जाने के बाद यह देश नई रणनीति पर काम कर रहे हैं। यूरोपीय देशों ने विश्व स्तर पर विकल्प तलाश करना शुरू कर दिया है ताकि वह भविष्य में अमरीका से स्वाधीन रहते हुए अपनी अंतर्राष्ट्रीय रणनीति तय कर सकें। यूरोपीय देशों ने इसी रणनीति के तहत जापान और दक्षिणी कोरिया से संबंध बढ़ाने पर काम किया है वहीं चीन से भी यूरोप अपने दूरगामी हितों के तहत सहयोग करना चाहता है। रूस के बारे में भी यूरोप की नीति अमरीका से अलग है।
अरब देशों में सबसे बड़ी होड़ यह लगी है कि अरब जगत का मुखिया कौन है। इस होड़ में सऊदी अरब सबसे ज़्यादा सक्रिय नज़र आता है, वहीं मिस्र का भी पुराना दावा है कि अरब जगत का नेतृत्व उसके हाथ में है। क़तर एक छोटा सा देश है लेकिन वह अरब जगत में सऊदी अरब या मिस्र की अगुवाई स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
इस स्थिति से अरब देशों के बुद्धिजीवियों और टीकाकारों में गहरी चिंता है। अरब टीकाकारों का कहना है कि इस समय अरब दुनिया सक्षम नेताओं के अभाव से जूझ रही है, अरब देशों का नेतृत्व एसे हाथों में है जिनसे अरब जनता संतुष्ट नहीं है और हताशा की यह स्थिति अरब युवाओं के भटकने का कारण बन रही है।
यह बात सारी दुनिया समझ चुकी है कि नई विश्व व्यवस्था अस्तित्व में आ रही है औ नई ताक़तें उभर रही हैं मगर इन हालात में अरब देश उसी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं। सऊदी अरब जैसे कुछ देश हैं जिन्होंने बस दिन रात यह रट लगा रखी है कि ईरान उनका सबसे बड़ा दुशमन है और सबको ईरान के विरुद्ध एकजुट हो जाना चाहिए जबकि यह देश इस सच्चाई को नहीं देख पा रहे हैं कि अरब देशों के साथ ईरान के संबंध बहुत मज़बूत हो चुके हैं, सीरिया, इराक़ और लेबनान जैसे देशों के साथ ईरान के स्ट्रैटेजिक संबंध है।
अरब देशों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि वह इस सच्चाई को जान बूझ कर नज़र अंदाज़ कर रहे हैं कि अमरीका जैसी ताक़तें केवल उनका दोहन कर रही है।